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________________ ज्ञानानन्दरत्नाकर। चले गाय मूर मॅगण के वीच शब्दरमा पूरा जाहि मुन मानन्द पाते करमा, अादि प्रभुप्रगटे तारण तरसनी ६४॥ गिरि मुमेरुपर पांडुक बनमें पांडुशिलापर नाय, इन्दने दियनाथ पधराय जी तोरोटघि से नीर हेमघट एक सहस पहुण्याय , इन्द्र ने अन्हवाये जिनरायजी ॥ दोहा। एकचार बमु जानिने योजन कलश प्रमाण । सोडारे जिनराज पर हर्ष हृदय में ठान ।। नाथको पहिनाये आवरण , आदि प्रशु प्रगटे तारखा तरणाजी ॥ इरा विपि कलश ऽविशेक इन्द्र कर अवधपुरी में आय, नाभि नृपको सोपे जिनरायजी ।। वृषभ नाथ कहि नाम इन्द्र ने स्तुति मुखसे गाय, सची गुग भक्तिकरी मन ख्यायनी ।। अमी अंगूठा मेलके इन्दू नाय निज शीश । दे अशीस निज गृह गये जयवन्तो ईश ॥ नाथ तुम शोभित कीनी धरण, आदि प्रभुप्रगट तारख तरणजी ॥६॥ लाख तिरेशठ पूर्व राज्यकर तब प्रभु भये उदास , सुस्त लोकांतक सुर आपासनी || स्तुति कर गृह गये फेर सुर इन्द्र प्रमूक दास, रची शिविका प्रभुको मुख राशिजी !! दोहा। तामें प्रभू प्रारूढो गये तपोवन नाथ । वस्त्राभरण उनारके लुचि केश निज हाथ ॥ तहां तप लागे दुर करण, आदि प्रथ भगटे तारण तरणजी ॥ ७ ॥ करतप धार जिनेश हने खल चारि घातिया कर्म , झान तय उपजा पंचम पर्गजी ॥ रामोशरण हरि रखा प्रकाशा तहां प्रभू निजधर्म, मिटाया भविजीवों का मर्मजी।।
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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