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________________ ज्ञानानन्दन्नाकर। रख सण जी ।टेका प्रथम गर्भ से मास द्विगुण त्रय नई रत्नों की वृष्टि, पंच दश मान अधि की सृष्टि जीहूंठ कोडि त्रय चार रत्न शुभ वर्षत पाये दृष्टि, क र संशय सुन मूढ निकृष्ट जी, दोहा। इंडू लुक्स से धनद ने रची अवधि जिय स्वर्ग । नव द्वादश योजन तनी ता गध्य उत्तम दुर्ग। पवापीतडाग बहुबरस, आदि प्रभुप्रगटे तारणनरणजी ॥१॥ निविधि ज्ञान संयुक्त जन्म लिया मर देवी के लाल, मुकुट हरिहा कम्या तत्काल जी, साढ़े बारह कोड़ि माबिके तूर बजे सब हाल, सप्त डग चलनायो हरिभालजी । दाहा। इन्द्रचले सुरसाय ले करन जन्म कल्याण | करत शब्दमुर गॅगण में जयजय जय भगवान ॥ नाथ तुम शोभित कीनी धरण, आदि प्रभुप्रगटे तारण तरणनी बीन प्रदक्षण दई नगर की इन्द्र सुरों के साथ, फेर तहां गये जहां जिन नाथनी । इन्धानी हरि हुक्म लियाई जिनवर को निजहाथ, देख दर्शन नाया हरि माथजी । दोहा। निरस्व रूप भगवान का तृप्त हुआ ना इन्दू। तब सुरेश वृग सहसूकर देखे आदि जिनेंद्र ॥ नवाया सस्तक प्रभुके चरण । आदि प्रभु प्रगटेतारण तरणजी ॥ ३ ॥ प्रथम इन्द्रने लिये नाथ तव द्वितिय इन्द्र ईशान । छत्र शिरधारा प्रभुके श्रानजी , सनत्कुमार महेंद्र चमर । दोऊढोरें इन्दू मुजान. शेषमुर करें जय जय भगवानजी ॥ दोहा। नृत्यकरें देवांगना वाजें बहु विधि तूर ।
SR No.010697
Book TitleGyanand Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherLala Bhagvandas Jain
Publication Year1902
Total Pages97
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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