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________________ ज्ञानानन्द रत्नाकर । ६५ है तुम विरद प्रगट त्रिभुवनमें। तारे बहुत अनाथ ॥ नाथूराम जिनभक्तदास को । कीजे आज सनाथ ॥ ४ ॥ श्रीसंजवनाथ स्तुति ॥ ३ ॥ करो मो संभव भव दुःखदूर (टेक) इन कर्मों मोहि बहुत फिरायो । दुखी भयो भरपूर || लख चौरासी योनि चतुर गति छानी फिरं २ धूर ॥ १ ॥ त्रिभुवनमें कोई रक्षक नाहीं । काल वलीसे शूर ॥ यासे शरण लिया प्रभु थारा । राखो आप हजूर ॥ २ ॥ इसका निग्रह तुमही कीना । ज्ञान गदा से चूर || अब मेरे वसु विधि अरि नाशो । नित्य सताते कूर ॥ ३ ॥ भव गद नाशनको प्रभु तुमही । सार सजीवन मूर ॥ नाथूराम जिनभक्त तुम्हारे । नित २ बाजो तूर ॥ . श्रीअभिनंदननाथ स्तुति ॥ ४ ॥ हमारे श्री अभिनन्दन ईश (टेक) अभिरुचि हमरी निज स्वभावमें । होय करो मुक्तीश । विषय भोगकी मिटे वासना । पाऊँ शिव जगदीश ॥ १॥ राग द्वेष संशय विमोह विभ्रम । तुमंडारे पीस || अव प्रभुजी मेरा रिपुनाशो | दारुण मोह खवीश ॥ २ ॥ वसु विधि मूलरु शाखा तिनकी । शत अरु वसु चालीस ।। ध्यान धनंजयसे सब जाती । कंटक यथा कृपीश ॥ ३ ॥ अजर अमर अव्ययपद जनको | दान करो विश्वोश || नाथूराम जिन भक्त नवावत । तुम पदपंकजशशि ॥ ४ ॥
SR No.010696
Book TitleGyanand Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1895
Total Pages105
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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