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________________ ३ ज्ञानानन्द रत्नाकर। . ६३ यथा छिद्रयुक्त कर विपे, चिर तिष्टे ना सोय ॥२॥ वीतराग मुख दर्शियो, पन प्रभा सम लाल ॥ नेक जन्म कृत पापसो, दर्शत नाशे हाल ॥३॥ जिन दर्शन रवि सारिखा, होय जगत तम नाश ॥ . विगशित चित्त सरोज लखि, कर्ता अर्थ प्रकाश ॥४॥ धर्मामृत की वृष्टिको, इन्दु दरश जिनराय ॥ जन्म ज्वलन नाशे बड़े, सुखसागर अधिकाय ॥५॥ सप्त तत्त्व दरशें ग्रहै, बसुगुण सम्यकसार ।। शांति दिगम्बर मूर्तिजिन, दशि नमों बहु बार ॥६॥ चेतन रूप जिनेश गुण, आतम तत्त्व प्रकाश ॥ ऐसे श्री सिद्धान्तको, नित्य नमों सुख आस ॥७॥ अन्य शरण वांछों नहीं, तुम्हीं शरण स्वयमेव ॥ यासे करुणा भाव घर, रखो शरण जिन देव ॥ ८॥ त्रिजगति में इस जीवको, तारण हारा कोय। वीतराग वर देव विन, भया न आगे होय॥ ९॥ श्री जिन भक्ति सदा मिलो, प्रति दिन अव.२ माहि ॥ जब तक जग वासी रहों, अंतर बांछों नाहि ॥ १० ॥ चिन जिन प शिव हो नहीं, चाहो हो चक्रोश । धनी दरिद्री होत संब, जिनं बप से शिव ईश ॥११॥ जन्म-जन्म कृत पाय अव, कााट उपायाजाय॥ जन्म जरादिक मूल से, जिन वंदत क्षय होय ॥ १२ ॥ यह अनूप महिमा लखी, जिन दर्शन की व्यक्त ॥
SR No.010696
Book TitleGyanand Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Munshi
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1895
Total Pages105
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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