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(नोट) - इसके बदले और भी चैत्यवंदन इच्छा होवे सो बोल सकते हैं ।
अर्थ - नगको अर्थात् भञ्यनीवोंको मन इच्छित पदार्थ देते
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इस लिए प्रभु चिंतामणि रत्न समान हैं। धर्म रहित भव्यजीवों को धर्ममें लगानेसे तथा धर्मवालोंके धर्म की रक्षा करनेसे प्रभु नाथ हैं । हितोपदेश देते हैं इसलिए प्रभु गुरु - (बड़े) हैं । षट्काय के जीवोंकी रक्षा करनेसे प्रभु रक्षक हैं । सब जीवोंका हित चितवन करने से
मुभाईके समान हैं । भव्यजीवों को निरुपद्रवपणे मोक्ष नगर पहुंचाते हैं । इसलिए प्रभु सार्थवाह हैं। तीन लोक में रहे हुए नत्र तत्त्वादि पदार्थों को केवलज्ञान द्वारा अच्छीतरह समझाते हैं, इस: लिए प्रभु विचक्षण हैं । जिन्होंकी मूर्त्तिये भरत राजाने अष्टापद ) पर्वत ऊपर स्थापन की है, जिन्होंने आठों ही कर्मोंका नाश किया है और जिन्होंकी शासन - शिक्षाकों कोई भी नहीं हरण कर मकता हैं ऐसे ऋषभदेवादि चौवीस जिनेश्वर जयवंता वर्त्तो ॥ १ ॥ जिल भूमिमें राज सता, व्यापार और खेतीवाडी आदि कर्म करने के साधन हैं ऐसी पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन पंद्रह कर्म भूमियों में पहेले संघयणवाले - जिसको वज्रऋषभनाराच कहते हैं और जिसके बराबर और कोई शरीर मजबूत तथा ताकत - चर नहीं हो सकता है ऐसे शरीवाले - उत्कृष्ट यानी ज्यादहमें ज्यादह ऐकसो सत्तर जिनेश्वर, नवक्रोड़ केवलज्ञानी, और नक हजार क्रोड़ साधु पूर्वकालमें - श्री अजितनाथजीके समयमें- विचरते प्राप्त होते थे, यह बात जिनागमसे मालुम होती है । आजकलके समयमें बीस जिनेश्वर, दो क्रोड़ केवलज्ञानी, और दो हजार क्रोह