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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसार । मानुषी तथा अपर्याप्त मनुष्योंकी संख्या बताते हैं । पज्जत्तमणुस्साणं तिचउत्थो माणुसीण परिमाणं । सामण्णा पुण्णूणा मणुवअपजत्तगा होंति ॥ पर्याप्तमनुष्याणां त्रिचतुर्थो मानुषीणां परिमाणम् । सामान्याः पूर्णोना मानवा अपर्याप्तका भवन्ति ॥ १५८ ॥ १५८ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थ - पर्याप्त मनुष्यों का जितना प्रमाण है उसमें तीन चौथाई ( 3 ) मानुषियों का प्रमाण है । सामान्य मनुष्यराशिमेंसे पर्याप्तकोंका प्रमाण घटानेपर जो शेष रहे उतना ही अपर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण है 1 इसप्रकार चारों ही प्रकारके मनुष्यों की संख्या बताकर अब देवगतिके जीवोंकी संख्या बताते हैं । ६५ तिण्णिसयजोयणाणं बेसदछप्पण्ण अंगुलाणं च । कदिहिदपदरं बेंतरजोइसियाणं च परिमाणं ॥ १५९ ॥ त्रिशतयोजनानां द्विशतषट्पञ्चाशदङ्गुलानां च । कृतिहितप्रतरं व्यन्तरज्योतिष्काणां च परिमाणम् ॥ १५९ ॥ अर्थ - तीन सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरदेवोंका प्रमाण है । और २५६ प्रमाणाङ्गुलोंके वर्गका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध 1 आवे उतना ज्योतिषियोंका प्रमाण है । घणअङ्गुलपढमपदं तदियपदं सेढिसंगुणं कमसो । भवणे सोहम्मदुगे देवाणं होदि परिमाणं ॥ १६० ॥ घनाङ्गुलप्रथमपदं तृतीयपदं श्रेणिसंगुणं क्रमशः । भवने सौधर्मद्विके देवानां भवति परिमाणम् ॥ १६० ॥ १ यह योजन प्रमाणामुलकी अपेक्षासे है । गो. ९ अर्थ — जगच्छ्रेणी के साथ घनाङ्गुलके प्रथम वर्गमूलका गुणा करने से भवनवासी, और तृतीय वर्गमूलका गुणा करने से सौधर्मद्विकके देवोंका प्रमाण निकलता है । तत्तो एगारणवसगपणचउणियमूलभाजिदा सेढी । पलासंखेजदिमा पत्तेयं आणदादिसुरा ॥ १६१ ॥ तत एकादशनवसप्तपञ्चचतुर्निजमूलभाजिता श्रेणी । पल्यासंख्यातकाः प्रत्येकमानतादिसुराः ।। १६१ ॥ अर्थ — इसके अनन्तर अपने ( जगच्छ्रेणी ) ग्यारह में नवमे सातमे पांचमे चौथे वर्गमूलसे भाजित जगच्छ्रेणी प्रमाण देवोंका प्रमाण है । आनतादिकमें प्रत्येक कल्पके देवोंका For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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