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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६४ www.kobatirth.org रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । षट्शतयोजनकृतिहितजगत्प्रतरं योनिमतीनां परिमाणम् । पूर्णोनाः पंचाक्षाः तिर्यगपर्याप्त परिसंख्या ॥ १५५ ॥ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अर्थ - छह सौ योजन के वर्गका जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना ही योनिमती तिचोंका प्रमाण है । और पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें से पर्याप्त तिर्यंचोंका प्रमाण घटानेपर जो शेष रहे उतना अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यचोंका प्रमाण है । मनुष्योंका प्रमाण बतानेके लिये तीन गाथाओं को कहते हैं । सेढीसूई अंगुलआदिमतदियपदभाजिदेगूणा । सामण्णमणुसरासी पंचमकदिघणसमा पुण्णा ॥ १५६ ॥ श्रेणी सूच्यङ्गुलादिमतृतीयपभाजितैकोना । सामान्यमनुष्यराशिः पञ्चमकृतिघनसमाः पूर्णाः ॥ १५६ ॥ अर्थ-सूच्यंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूलका जगच्छ्रेणीमें भाग देनेसे जो शेष रहे उसमें एक और घटानेपर जो शेष रहे उतना सामान्य मनुष्य राशिका प्रमाण है । इसमेंसे द्विरूपवर्गधारामें उत्पन्न पांच मे वर्ग ( वादाल ) के घनप्रमाण पर्याप्त मनुष्यों का प्रमाण है । पर्याप्त मनुष्यों की संख्याको स्पष्टरूपसे बताते हैं । तललीन मधुगविमलंधूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्तसंखंका ॥ १५७ ॥ तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचोरभयमेरू । तटहरिखझसा भवन्ति हि मानुषपर्याप्त संख्याङ्काः ॥ १५७ ॥ अर्थ —तकारसे लेकर सकारपर्यन्त जितने अक्षर इसगाथामें बताये हैं, उतने ही अङ्कप्रमाण पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या है । भावार्थ - इस गाथामें तकारादि अक्षरोंसे अङ्कका ग्रहण करना चाहिये; परन्तु किस अक्षर से किस अङ्कका ग्रहण करना चाहिये इसके लिये "कटपय पुरस्स्थवर्णैर्नव नवपंचाष्टकल्पितैः क्रमशः । खरजनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् | यह गाथा उपयोगी है । अर्थात् कसे लेकर आगेके झ तकके नव अक्षरोंसे क्रमसे एक दो आदि नव अङ्क समझने चाहिये । इस ही प्रकार टसे लेकर नव अक्षरोंसे नव अङ्क, और पसे लेकर पांच अक्षरोंसे पांच अङ्क, तथा यसे लेकर आठ अक्षरोंसे आठ अङ्क, एवं सोलह खर और ञ न इनसे शून्य (०) समझना चाहिये । किन्तु मात्रा और ऊपरका अक्षर, इससे कोई भी अक ग्रहण नहीं करना चाहिये । इस नियमके और "अङ्कोंकी विपरीत गति होती है" इस नियम के अनुसार इस गाथा में कहे हुए अक्षरोंसे पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ निकलती है For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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