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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चार्यसे कई शदी पूर्व हुए हैं; परंतु जबकि कवि रन्नने अपनेपर श्रीमान् चामुण्डरायकी कृपा रहनेका जिक किया है तथा पराणतिलककी रचना शक सं. ९५५ में उसने की यह निश्चित है त ब इस शंकाको स्थान नहीं रहता। अत एव इतिहासप्रेमी यह निश्चित करते हैं कि श्रीमान् नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीका समय भी लगभग शक सं. ९१५ के ही है। परंतु यह निश्चय एक प्रकारसे पुराणतिलकके आधारसे ही है अत एव अभी इतना संदेह ही है कि यदि पुराणतिलकके कथनको प्रमाण माना जाय तो बाहबलीचरितके कथनको प्रमाण क्यों न माना जाय? यदि माना जाय तो किस तरह घटित किया जाय ? इसतरह नेमिचंद्र सि. चक्रवर्तीका समय एक तरहसे अभीतक हमको संदिग्ध ही है। इसीलिये समयनिर्णयको हम यहीं विराम देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि समयकी प्राचीनता या अर्वाचीनतासे प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं होता । प्रामाण्य या अप्रामाण्य के निर्णयका हेतु ग्रंथकर्ताका ग्रंथ होता है। इस ग्रंथके रचयिता साधारण विद्वान् न थे। उनके रचित गोमसार त्रिलोकसार लब्धिसार आदि उपलब्ध ग्रंथ उनकी असाधारण विद्वत्ता और 'सिद्धांतचक्रवर्ती' इस पदवीको सार्थक सिद्ध कर रहे हैं। यद्यपि उपलब्ध ग्रंथों में गणितकी प्रचुरता देखकर लोग यह विश्वास कर सकते हैं कि श्री नेमिचंद्र सि. चक्रवर्ती गणितके ही अप्रतिम पण्डितथे परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि वे सर्व विषयमें पूर्ण निष्णात थे। __ऊपर जो गोमसार संस्कृत टीकाकी उत्थानिकाका उल्लेख दिया है उसमें यह वात दिखाई गई है कि इस ग्रंथकी रचना श्रीमच्चामुण्डरायके प्रश्नके अनुसार हुई है । इस विषयमें ऐसा सुननेमें आता है कि एक वार श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती धवलादि महासिद्धांत ग्रंथोंमेंसे किसी सिद्धांत-ग्रंथका स्वाध्याय कर रहे थे। उसी समय गुरुका दर्शन करनेकेलिये श्री चामुण्डराय भी आये । शिष्यको आता हुआ देखकर श्रीनेमिचंद्र सि. चक्रवर्तीने खाध्याय करना बंद कर दिया । जब चामुण्डराय गुरुको नमस्कार करके बैठगये तब उनने पूछा कि गुरो ! आपने ऐसा क्यों किया ? तब गुरुने कहा कि श्रावकको इन सिद्धांत ग्रंथोंके सुननेका अधिकार नहीं है । इसपर चामुण्डरायने कहा कि हमको इन ग्रंथोंका अवबोध किस तरह होसकता है ? कृपया कोई ऐसा उपाय निकालिये कि जिससे हम भी इनका महत्वानुभव कर सकें। सुनते हैं कि इसीपर श्रीनेमिचंद्र सि. चक्रवर्तीने सिद्धांत ग्रंथोंका सार लेकर इस गोमट्टसार ग्रंथकी रचना की है। इस ग्रंथका दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है । क्योंकि इसमें महाकर्मप्राभृतके सिद्धांतसंबंधी जीवस्थान क्षुद्रबंध बंधखामी वेदनाखंड वर्गणाखंड इन पांच विषयोंका वर्णन है । मूलग्रंथ प्राकृतमें लिखा गया है । यद्यपि मूल लेखक श्रीयुत नेमिचंद्र सि. चक्रवर्ती ही हैं; तथापि कहीं पर कोई २ गाथा माधवचंद्र विद्यदेवने भी लिखी हैं । यह टीकामें दी हुई गाथाओंकी उत्थानिका के देखनेसे मालुम होती हैं । माधवचंद्र विद्यदेव श्री नेमिचंद्र सि. चक्रवर्तीके प्रधान शिष्योंमेंसे एक थे। मालुम होता है कि तीन विद्याओंके अधिपति होनेके कारण ही आपको त्रैविद्यदेवका पद मिला होगा। इससे पाठकोंको यह भी अंदाज करलेना चाहिये कि नेमिचंद्र सि. चक्रवर्तीकी विद्वत्ता कितनी असाधारण थी। - इस ग्रंथराजके ऊपर अभीतक चार टीका लिखी गई हैं । जिसमें सबसे पहले एक कर्नाटक वृत्ति बनी है। उसके रचयिता ग्रंथकर्ताके अन्यतम शिष्य श्रीचामुण्डराय हैं । इसी टीकाके आधारपर एक संस्कृत टीका बनी है जिसके निर्माता केशववर्णी हैं और यह टीका भी इसी नामसे प्रसिद्ध है। दूसरी संस्कृत टीका श्रीमदभयचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीकी बनाई हुई है जो कि 'मंदप्रबोधिनी' नामसे प्रख्यात है । उपयुक्त दोनों टीकाओंके आधारसे श्रीमद्विद्वद्वर टोडरमल्लजीने 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' नामकी हिंदी टीका बनाई है । उक्त कर्नाटक वृत्तिके सिवाय तीनों टीकाओंके आधारपर यह संक्षिप्त बालबोधिनी टीका लिखी है । 'मंदप्रबोधिनी' हमको पूर्ण नहीं मिलसकी इसलिये जहांतक मिल सकी वहांतक तीनों टीकाओंके आधारसे और आगे 'केशववर्णी' तथा 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' के आधारसे ही हमने इसको लिखा है । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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