SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसार। नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवत्तीने कई जगह वीरनंदि आचार्यका स्मरण किया है । यथाः "जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं॥" "णमिऊण अभयणंदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पञ्चयं वोच्छं ॥" "णमह गुणरयणभूसणसिद्धतामियमहब्धिभवभाव । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणभिंदणंदिगुरुं ॥" इन्ही वीरनंदिका स्मरण वादिराज सूरीने भी किया है । यथाः चंद्रप्रभाभिसंबद्धा रसपुष्टा मनःप्रियम् । कुमुद्वतीव नो धत्ते भारती वीरनंदिनः ॥ (पार्श्वनाथकाव्य श्लो. ३०) वादिराज सूरीने पार्श्वनाथ काव्यकी पूर्ति शक सं. ९४७ में की है, यह उसीकी अन्तिम प्रशस्तिके इस पद्यसे मालुम होता है। "शाकाब्दे नगवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने, मासे कार्तिकनाम्नि बुद्धिमहिते शुद्धे तृतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमती जैनी कथेयं मया, निष्पत्तिं गमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥" अर्थात् 'शक सम्बत् ९४७ ( क्रोधन सम्वत्सर ) की कार्तिक शुक्ला तृतीयाको पार्श्वनाथ काव्य पूर्ण किया।' इस कथनसे यद्यपि यह मालुम होता है कि वीरनंदि आचार्य शक संवत् ९४७ के पहले ही होबुके हैं; तथापि जब कि वीरनंदी आचार्य स्वयं अभयनंदीको गुरु स्वीकार करते हैं और नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती भी उनको गुरुरूपसे स्मरण करते है तब यह अवश्य कहा जा सकता है कि वीरनंदि और नेमिचंद्र दोनों ही समकालीन हैं। गोमट्टसारकी गाथाओंका उल्लेख प्रमेयकमलमार्तण्डमें भी मिलता है-यथाः "विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुहदो अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणो जीवा ॥ "( ६६५) श्रीप्रभाचंद्र आचार्यने प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना भोजराजके समयमें की है; क्योंकि उसके अंतमें यह उल्लेख है कि: "श्री भोजदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्टिप्रणामार्जितामलपुण्यनिराकतनिखिलमलकलंकेन श्रीमत्प्रभाचंद्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति ।" धारानगरीके अधिपति भोजराजका समय विक्रमकी ११ वीं शदी निश्चित है । इससे यह मालुम होता है कि नेमिचंद्रखामी या तो प्रभाचंद्राचार्यके समकालीन हैं या कुछ पहले होचुके हैं । यद्यपि इस प्रमाणसे यह भी मालुम होसकता है कि श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवती प्रभाचंद्रा For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy