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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। सवेसि सुहुमाणं काओदा सबविग्गहे सुक्का। सबो मिस्सो देहो कओदवण्णो हवे णियमा ॥१॥ सर्वेषां सूक्ष्माणां कापोताः सर्वविग्रहे शुक्लाः । ___ सर्वो मिश्रो देहः कपोतवर्णो भवेनियमात् ॥ १॥ अर्थ-पृथिवीकायादि समस्त सूक्ष्म जीवोंके कपोत लेश्या ही होती है । तथा समस्त विग्रहगतिसम्बन्धी कार्मणशरीरकी शुक्ल लेश्या होती है । तथा समग्र मिश्र शरीर नियमसे कपोतवर्णवाला होता है । भावार्थ-अपर्याप्त आलापोमें द्रव्यलेश्या कपोत और शुक्ल ये दो ही होती हैं । इसके सिवाय और भी विशेषता है वह यह है कि मनुष्यरचना सम्बन्धी प्रमत्तादि गुणस्थानों में जो तीन वेद बताये हैं वे द्रव्यवेदकी अपेक्षासे हैं। भाववेदकी अपेक्षासे एक पुरुष वेद ही होता है । तथा स्त्री नपुंसक वेदके उदयमें आहारक योग मनःपर्यय ज्ञान परिहारविशुद्धि संयम ये नहीं होते । नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें सासादन गुणस्थान नहीं होता । तथा किसी भी अपर्याप्त अवस्थामें मिश्र गुणस्थान नहीं होता। इत्यादि और भी जो २ नियम "पुढवी आदि चउण्हं" आदि पहले बताये हैं उनको तथा अन्यत्र भी कहे हुए नियमोंको आलाप लगाते समय ध्यानमें रखना चाहिये। कुछ नियमोंको गिनाते हैं। मणपजवपरिहारो पढमुवसम्मत्त दोण्णि आहारा । एदेसु एकपगदे णस्थित्ति असेसयं जाणे ॥ ७२८ ॥ मनःपर्ययपरिहारौ प्रथमोपसम्यक्त्वं द्वावाहारौ। एतेषु एकप्रकृते नास्तीति अशेषकं जानीहि ॥ ७२८ ॥ अर्थ-मनःपर्यय ज्ञान परिहारविशुद्धि संयम प्रथमोपशमसम्यक्त्व और आहारकद्वय इनमें किसी भी एकके होनेपर शेष भेद नहीं होते ऐसा जानना चाहिये । बिदियुवसमसम्मत्तं सेढीदोदिण्णि अविरदादीसु । सगसगलेस्सामरिदे देवअपजत्तगेव हवे ॥ ७२९ ॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं श्रेणितोऽवतीर्णेऽविरतादिषु । स्वकस्वकलेश्यामृते देवापर्याप्तक एव भवेत् ।। ७२९ ॥ अर्थ-उपशमश्रेणिसे उतरकर अविरतादिक गुणस्थानोंको प्राप्तकरनेवालोंमेंसे जो अपनी २ लेश्याके अनुसार मरण करके देवपर्यायको प्राप्त करता है उसहीके अपर्याप्त अवस्थामें द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है । भावार्थ-चारगतिमेंसे एक देव अपर्याप्तको छोड़कर अन्य किसी भी गतिकी अपर्याप्त अवस्थामें द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता। - १ यह गाथा यद्यपि पहले लेश्या मार्गणामें भी आचुकी है तथापि यहांपर भी इसको उपयोगी समझकर पुनः लिखदिया है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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