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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ओघे आदेशे वा संज्ञिपर्यन्तका भवेयुर्यत्र । तत्र चैकोनविंशांता एकद्वित्रिगुणिता भवेयुः स्थानानि ।। ७२६ । अर्थ – सामान्य ( गुणस्थान ) या विशेषस्थान में ( मार्गणास्थानमें ) संज्ञी पंचेन्द्रियपर्यन्त मूलजीवसमासोंका जहां निरूपण किया है वहां उत्तर जीवसमासस्थान के भेद उन्नीसपर्यन्त होते हैं । और इनका भी एक दो तीनके साथ गुणा करनेसे क्रमसे उन्नीस अड़तीस और सत्तावन जीवसमास के भेद होते हैं । भावार्थ – गुणस्थान और मार्गणाओं में जहां संज्ञिपर्यन्त भेद बताये हैं, वहां ही जीवसमास के एकसे लेकर उन्नीसपर्यन्त और पर्याप्त अपर्याप्त इन दो भेदोंसे गुणा करनेकी अपेक्षा अड़तीस भेद, तथा पर्याप्त निर्वृत्यपर्याप्त लब्ध्यपर्याप्त इन तीन भेदोंसे गुणा करनेकी अपेक्षा सत्तावन भेद भी समझने चाहिये । इसका विशेष स्वरूप जीवसमासाधिकार कह चुके हैं । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir " गुण जीवे " - त्यादि गाथाके द्वारा बताये हुए वीस भेदोंकी योजना करते हैं । वीरमुहकमलणिग्गयसयलसुयग्गहणपयउणसमत्थं । मिऊणगोयममहं सिद्धंतालावमणुवोच्छं ॥ ७२७ ॥ वीरमुखकमलनिर्गत सकलश्रुतग्रहणप्रकटनसमर्थम् । नवा गौतममहं सिद्धान्तालापमनुवक्ष्ये ।। ७२७ ॥ 1 अर्थ — अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्धमानखामी के मुखकमलसे निर्गत समस्त श्रुतसिद्धान्त के ग्रहण करने और प्रकट करने में समर्थ श्रीगौतमस्वामीको नमस्कार करके मैं उस सिद्धान्तालापको कहूंगा जो कि वीर भगवान् के मुखकमलसे उपदिष्ट श्रुतमें वर्णित समस्त पदार्थों के प्रकट करनेमें समर्थ है । भावार्थ - जिस तरह श्रीगौतमस्वामी तीर्थकर भगवान् के समस्त उपदेशको ग्रहण और प्रकट करनेमें समर्थ हैं उसी तरह यह आलाप भी उनके (भगवान्के ) समस्त श्रुतके ग्रहण और प्रकट करनेमें समर्थ है । क्योंकि इस सिद्धान्तालाप उन्ही समस्त पदार्थों का वर्णन है जिनको कि श्रीगौतमस्वामीने भगवान् के समस्त श्रुतको ग्रहण करके प्रकट किया है । 1 पहले गुणस्थान जीवसमास आदि वीस प्ररूपणाओंको बताचुके हैं उनमें तथा उनके उत्तर भेदोंमें क्रमसे एक २ के ऊपर यह आलाप आगमके अनुसार लगाना चाहिये कि विवक्षित किसी एक प्ररूपणा के साथ शेष प्ररूपणाओं में से कौन २ सी प्ररूपणा अथवा उनका उत्तर भेद पाया जाता है । इनका विशेष स्वरूप देखनेकी जिनको इच्छा हो वे इसकी संस्कृत टीका अथवा बड़ी भाषाटीका में देखें । इन आलापोंको लगाते समय जिन बातोंका अवश्य ध्यान रखना चाहिये उन विशेष वातको ही आचार्य यहां पर दिखाते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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