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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गयजोगिम्मि वि सिद्ध लेस्सा णस्थित्ति णिदिदं ॥ ६९२ ॥ नवरि च शुक्ला लेश्या सयोगिचरम इति भवति नियमेन । गतयोगेऽपि च सिद्धे लेश्या नास्तीति निर्दिष्टम् ॥ ६९२ ॥ अर्थ-शुक्ललेश्यामें यह विशेषता है कि वह संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवल गुणस्थानपर्यन्त होती है । और इसमें जीवसमास दो ही होते हैं । इसके ऊपर चौदहमे गुणस्थानवी जीवोंके तथा सिद्धोंके कोई भी लेश्या नहीं होती यह परमागममें कहा है। थावरकायप्पहुदी अजोगि चरिमोत्ति होंति भवसिद्धा। मिच्छाइट्टिाणे अभवसिद्धा हवंतित्ति ॥ ६९३ ॥ स्थावरकायप्रभृति अयोगिचरम इति भवन्ति भवसिद्धाः । मिथ्यादृष्टिस्थाने अभव्यसिद्धा भवन्तीति ॥ ६९३ ॥ अर्थ-भव्यसिद्ध स्थावरकाय-मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिपर्यंत होते हैं। और अभव्यसिद्ध मिथ्यादृष्टिस्थानमें ही रहते हैं । भावार्थ-भव्यत्त्वमार्गणाके दो भेद हैं, एक भव्य और दूसरे अभव्य-इन्हीको भव्यसिद्ध अभव्यसिद्ध भी कहते हैं । जिसके निमित्तसे बाह्य निमित्त मिलनेपर सिद्धपर्यायकी तथा उसके साधनभूत सम्यग्दर्शनादिसम्बन्धी शुद्धपर्यायकी प्राप्ति होसके जीवकी उस शक्तिविशेषको भव्यत्त्वशक्ति कहते हैं। जिसके निमित्तसे बाह्य निमित्तकेमिलने पर भी सम्यग्दर्शनादिककी तथा उसके कार्यरूप सिद्धपर्यायकी प्राप्ति न हो सके जीवकी उस शक्तिविशेषको अभव्यत्त्वशक्ति कहते हैं । भव्यत्त्वशक्तिवालोंको भव्य और अभव्यत्त्वशक्तिवाले जीवोंको अभव्य कहते हैं । भव्यजीवोंके चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमास होते हैं । और अभव्य जीवोंके चौदह जीवसमास और एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षा वर्णन करते हैं। मिच्छो सासणमिस्सो सगसगठाणम्मि होदि अयदादो। पढमुवसमवेदगसम्मत्तदुर्ग अप्पमत्तोत्ति ॥ ६९४ ॥ मिथ्यात्वं सासनमिश्रौ स्वकस्वकस्थाने भवति अयतात् । प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकमप्रमत्त इति ॥ ६९४ ॥ अर्थ-सम्यक्त्वमार्गणाके छह भेद हैं मिथ्यात्व, सासन, मिश्र, औपशमिक क्षायिक, क्षायोपशमिक । इनमें आदिके तीन सम्यक्त्व तो अपने २ गुणस्थानमें ही होते हैं। और प्रथमोपशम तथा वेदक ये दो सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातमे गुणस्थानतक होते हैं । भावार्थ-मिथ्यादर्शनका गुणस्थान एक प्रथम और जीवसमास चौदह । सासादनका For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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