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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । २५५ क्रमप्राप्त दर्शनमार्गणाकी अपेक्षा यथासम्भव गुणस्थान और जीवसमास घटित करते हैं । चउरक्खथावरविरदसम्माइट्ठी दु खीणमोहोति । चक्अचक्खू ओही जिणसिद्धे केवलं होदि ॥ ६९० ॥ चतुरक्षस्थावराविरतसम्यग्दृष्टिस्तु क्षीणमोह इति । चक्षुरचक्षुरवधिः जिनसिद्धे केवलं भवति ।। ६९० ॥ अर्थ-दर्शन के चार भेद हैं चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन अवधिदर्शन केवलदर्शन यह पहले बताचुके हैं। इनमें पहला चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रियसे लेकर क्षीणमोहपर्यन्त होता है । और अचक्षुदर्शन भी स्थावर काय से लेकर क्षीण मोहपर्यन्त ही होता है। तथा अवधिदर्शन अत्रतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणमोहपर्यन्त होता है । केवलदर्शन सयोगकेवल और अयोगकेवल इन दो गुणस्थानों में और सिद्धोंके होता है । भावार्थ-चक्षुदर्शनमें गुणस्थान बारह और चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रियके असंज्ञी संज्ञीसम्बन्धी अपर्याप्त पर्याप्तकी अपेक्षा जीवसमास छह होते हैं । अचक्षुदर्शनमें गुणस्थान बारह और जीवसमास चौदह होते हैं । अवधिदर्शनमें गुणस्थान ad और जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त ये दो होते हैं । केवलदर्शन में गुणस्थान दो और जीवसमास भी दो होते हैं । विशेषता यह है कि यह ( केवलदर्शन ) गुणस्थानातीत सिद्ध भी होता है । लेश्याकी अपेक्षासे गुणस्थान और जीवसमासोंका वर्णन करते हैं । थावर काय पहुदी अविरदसम्मोत्ति असुहतियलेस्सा । सणीदो अपमन्तो जाब द सुहतिण्णिलेस्साओ ॥ ६९१ ॥ स्थावर कायप्रभृति अविरतसम्यगिति अशुभत्रिकलेश्याः । संज्ञितः अप्रमत्तो यावत्तु शुभास्तिस्रो लेश्याः ॥ ६९१ ॥ अर्थ – लेश्याओं के छह भेदोंको पहले बता चुके हैं । उनमें आदिकी कृष्ण नील कापोत ये तीन अशुभ लेश्या स्थावर कायसे लेकर चतुर्थ गुणस्थानपर्यन्त होती हैं । और अंतकी पीत पद्म शुक्ल ये तीन शुभलेश्या संज्ञी मिध्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्तपर्यन्त होती हैं । भावार्थअशुभ लेश्याओंमें गुणस्थान चार और जीवसमास चौदह होते हैं, तथा शुभलेश्याओं में जीवसमास दो होते हैं । इस कथन से शुक्ललेश्या भी सातमे गुणस्थानतक ही सिद्ध होती है अतः शुक्ललेश्याके विषय में अपवादात्मक विशेष कथन करते हैं । वरिय सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदि नियमेण । १ क्योंकि यह समीचीन अवधिज्ञानकी अपेक्षासे कथन है । जो मिथ्या अवधि है उसको विभंग कहते हैं । विभंगके पहले दर्शन नहीं होता । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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