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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-मिथ्यात्व, सासादन, पुरुषवेदके उदयसंयुक्त असंयत, तथा कपाटसमुद्धात करनेवाले सयोगकेवली, इन चार स्थानोंमें ही औदारिकमिश्रकाययोग होता है । तथा औदारिक काययोग और औदारिकमिश्रकाययोग ये दोनों ही मनुष्य और तिर्यञ्चोंके ही होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है। वेगुवं पजत्ते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु ।। सुरणिरयचउट्ठाणे मिस्से णहि मिस्सजोगो हु॥ ६८१ ॥ वैगूर्व पर्याप्ते इतरे खलु भवति तस्य मिश्रं तु । सुरनिरयचतुःस्थाने मिश्रे नहि मिश्रयोगो हि ॥ ६८१ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतपर्यंत चारो ही गुणस्थानवाले देव और नारकियोंके पर्याप्त अवस्थामें वैक्रियिक काययोग होता है, और अपर्याप्त अवस्थामें वैक्रियिकमिश्रयोग होता है। किन्तु यह मिश्रयोग चार गुणस्थानोंमेंसे मिश्र गुणस्थानमें नहीं होता; क्योंकि कोई भी मिश्रयोग मिश्रगुणस्थानमें नहीं होता । वैक्रियिक योगमें एक संज्ञीपर्याप्त ही जीवसमास है और मिश्रयोगमें एक संज्ञी निर्वृत्यपर्याप्त जीवसमास है । आहारो पजत्ते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । अंतोमुहुत्तकाले छट्टगुणे होदि आहारो ॥ ६८२ ॥ आहारः पर्याप्ते इतरे खलु भवति तस्य मिश्रस्तु । अंतर्मुहूर्तकाले षष्ठगुणे भवति आहारः ॥ ६८२ ॥ अर्थ-आहारकाययोय पर्याप्त अवस्थामें होता है, और आहारकमिश्रयोग अपर्याप्त अवस्थामें होता है । ये दोनों ही योग छठे गुणस्थानवाले मुनिके ही होते हैं । और इनके उत्कृष्ट और जघन्य कालका प्रमाण अंतर्मुहूर्त ही है । भावार्थ—यहांपर जो पर्याप्तता या अपर्याप्तता कही है वह आहारक शरीरकी अपेक्षासे कही है, औदारिक शरीरकी अपेक्षासे नहीं कही है; क्योंकि औदारिकशरीरसम्बन्धी अपर्याप्तता छटे गुणस्थानमें नहीं होती । ओरालियमिस्सं वा चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुगदिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥ ६८३ ॥ औरालिकमिश्रो वा चतुर्गुणस्थानेषु भवति कार्मणम् । चतुर्गतिविग्रहकाले योगिनश्च प्रतरलोकपूरणके ॥ ६८३ ॥ अर्थ-औदारिक मिश्रयोगकी तरह कार्मण योग भी चार गुणस्थानोंमें और चारों विग्रहगतियोंके कालमें होता है, विशेषता केवल इतनी है कि औदारिकमिश्रयोगको जो सयोगकेवलि गुणस्थानमें बताया है सो कपाटसमुद्धात समयमें बताया है, और कार्मणयोगको प्रतर और लोकपूरण समुद्धात समयमें बताया है । यहां पर औदारिकमिश्रकी तरह जीवसमास भी आठ होते हैं। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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