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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २५१ होते हैं । इन्द्रिय मार्गणामें एकेन्द्रिय जीवों के बादर पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं । द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवोंके अपने २ पर्याप्त अपर्याप्त इसतरह दो २ जीवसमास होते हैं । पंचेन्द्रियमें संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त असंज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त ये चार जीवसमास होते हैं । कायमार्गणाकी अपेक्षा स्थावरकायमें एकेन्द्रियके समान चार जीवसमास होते हैं । और त्रसकायमें शेष दश जीवसमास होते हैं। मज्झिमचउमणवयणे सण्णिप्पहुदि दु जाव खीणोत्ति । सेसाणं जोगित्ति य अणुभयवयणं तु वियलादो ॥ ६७८॥ मध्यमचतुर्मनोवचनयोः संज्ञिप्रभृतिस्तु यावत् क्षीण इति । शेषाणां योगीति च अनुभयवचनं तु विकलतः ॥ ६७८ ॥ अर्थ-असत्यमन उभयमन असत्य वचन उभय वचन इन चार योगोंके खामी संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषायपर्यंत बारह गुणस्थानवाले जीव हैं । और सत्यमन अनुभयमन सत्यवचन इनके खामी आदिके तेरह गुणस्थानवाले जीव हैं। अनुभय वचनयोग विकलत्रयसे लेकर सयोगीपर्यन्त होता है। अनुभय वचनको छोड़कर शेष तीन प्रकारका वचन और चार प्रकारका मन, इनमें एक संज्ञी पर्याप्त ही जीवसमास है । और अनुभय वचनमें पर्याप्त द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी संज्ञी ये पांच जीवसमास होते हैं । ओरालं पजत्ते थावरकायादि जाव जोगोत्ति । तम्मिस्समपजत्ते चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥ ६७९ ॥ औरालं पर्याप्ते स्थावरकायादि यावत् योगीति । तन्मिश्रमपर्याप्ते चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥ ६७९ ॥ अर्थ-औदारिककाययोग, स्थावर एकेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगी पर्यन्त होता है । और औदारिकमिश्रकाययोग नियमसे चार अपर्याप्त गुणस्थानोंमें ही होता है। औदारिक काययोगमें पर्याप्त सात जीवसमास होते हैं, और मिश्रयोगमें अपर्याप्त सात जीवसमास हैं। अपर्याप्त चार गुणस्थानोंको गिनाते हैं। मिच्छे सासणसम्मे पुंवेदयदे कवाडजोगिम्मि । णरतिरियेवि य दोण्णिवि होतित्ति जिणेहिं णिहिटुं॥ ६८०॥ मिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वे पुंवेदायते कपाटयोगिनि । नरतिरश्चोरपि च द्वावपि भवन्तीति जिनैर्निर्दिष्टम् ॥ ६८० ॥ १ गुणस्थानोंका क्रम गुणस्थानाधिकारसे समझना। २ इनमें एक सयोगीको मिलानेसे आठ जीवसमास होते हैं। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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