SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । हारोंका प्रमाण समझना चाहिये । विशेषता यह है कि देशसंयम गुणस्थान वर्गोंमें तथा नरकोंमें नहीं होता; किन्तु तिर्यञ्चोंमें होता है। इसलिये तिर्यंचोंमें जो सासादनके भागहारका प्रमाण है उससे असंख्यातगुणा तिर्यंचोंके देशत्रत गुणस्थानका भागहार है । तथा तिर्यंचोंके देशसंयम गुणस्थानके भागहारका जो प्रमाण है वही प्रथम नरकके असंयत गुणस्थानके भागहारका प्रमाण है । किन्तु देशव्रतके भागहारका प्रमाण वर्ग तथा नरकमें नहीं है। आनतादिकमें गुणितक्रमकी व्याप्तिको तीन गाथाओंद्वारा बताते हैं । चरमधरासाणहरा आणदसम्माण आरणप्पहुदि । अंतिमगेवेजंतं सम्माणमसंखसंखगुणहारा ॥ ६३७ ॥ चरमधरासानहारादानतसमीचामारणप्रभृति । अंतिमौवेयकान्तं समीचामसंख्यसंख्यगुणहाराः ॥ ६३७ ।। अर्थ-सप्तम पृथ्वीके सासादनसम्बन्धी भागहारसे आनत प्राणतके असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है । तथा इसके आगे आरण अच्युतसे लेकर नौमे प्रैवेयकपर्यंत दश स्थानोंमें असंयतका भागहार क्रमसे संख्यातंगुणा २ है । तत्तो ताणुत्ताणं वामाणमणुहिसाण विजयादि । सम्माणं संखगुणो आणदमिस्से असंखगुणो ॥ ६३८ ॥ ततस्तेषामुक्तानां वामानामनुदिशानां विजयादि-। समीचां संख्यगुण आनतमिश्रे असंख्यगुणः ॥ ६३८ ॥ अर्थ-इसके अनंतर आनत प्राणतसे लेकर नवम अवेयक पर्यंतके मिथ्यादृष्टि जीवोंका भागहार क्रमसे अंतिम अवेयक सम्बन्धी असंयतके भागहारसे संख्यातगुणा संख्यातंगुणा है । इस अंतिम अवेयक सम्बन्धी मिथ्यादृष्टिके भागहारसे क्रमपूर्वक संख्यातगुणा संख्यातगुणा नव अनुदिश और विजय वैजयंत जयंत अपराजितके असंयतोंका भागहार है । विजयादिकसम्बन्धी असंयतके भागहारसे आनत प्राणत सम्बन्धी मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। तत्तो संखेजगुणो सासणसम्माण होदि संखगुणो। उत्तहाणे कमसो पणछस्सत्तट्ठचदुरसंदिट्ठी ॥ ६३९ ॥ ततः संख्येयगुणः सासनसमीचां भवति संख्यगुणः । उक्तस्थाने क्रमशः पञ्चषटूछप्ताष्टचतुःसंदृष्टिः॥ ६३९ ॥ १-२-३ इन स्थानोंमें संख्यातकी सहनानी क्रमसे पांच अंक छह अंक तथा सातका अंक है। इस बातको आगेके गाथामें कहेंगे। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy