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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २३४ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ – छट्ठे गुणस्थान से लेकर चौदहमे गुणस्थानतक के सर्व संयमियोंका प्रमाण तीन कम नव करोड़ है (८९९९९९९७ ) । इनको मैं हाथ जोड़कर शिर नवाकर मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूं । भावार्थ - प्रमत्तवाले जीव (५९३९८२०६ ) अप्रमत्तवाले (२९६९९१०३ ) उपशम श्रेणीवाले चारो गुणस्थानवर्ती ( ११९६ ) क्षपक श्रेणीवाले चार गुणस्थानवर्ती (२३९२ ) सयोगी जिन ( ८९८५०२ ) इन सबका जोड़ ( ८९९९९३९९ ) होता है सो इसको सर्वसंयमियोंके प्रमाणमेंसे घटाने पर शेष अयोगी जीवोंका प्रमाण ( ५९८ ) रहता है । इसको संयमियोंके प्रमाण में जोड़नेसे संयमियोंका कुलप्रमाण तीन कम नौ करोड़ होता है । चारो गतिसम्बन्धी मिध्यादृष्टि सासादन मिश्र और अविरत इनकी संख्याके साधक - भूत पल्यके भागहारका विशेष वर्णन करते हैं । ओघासंजद मिस्सयसासणसम्माणभागहारा जे । रूऊणावलियासंखेज्जेणिह भजिय तत्थ णिक्खिते ॥ ६३३ ॥ देवाणं अवहारा होंति असंखेण ताणि अवहरिय | तत्थेव य पक्खित्ते सोहम्मीसाण अवहारा ॥ ६३४ ॥ ओघा असंयतमिश्रकसासनसमीचां भागहारा ये । रूपोनावलिकासंख्यातेनेह भक्त्वा तत्र निक्षिप्ते ॥ ६३३ ॥ देवानामवहारा भवन्ति असंख्येन तानवहृत्य । तत्रैव च प्रक्षिप्ते सौधर्मैशानावहाराः || ६३४ ॥ अर्थ – गुणस्थानसंख्यामें असंयत मिश्र सासादनके भागहारों का जो प्रमाण बताया है उसमें एक कम आवली के असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको भागहारके प्रमाण में मिलानेसे देवगतिसम्बन्धी भागहारका प्रमाण होता है । तथा देवगतिसम्बन्धी भागहार के प्रमाण में एक कम आवलीके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको देवगतिसम्बन्धी भागहार के प्रमाण में मिलानेसे सौधर्म ईशान स्वर्गसम्बन्धी भागहारका प्रमाण होता है । भावार्थ - जहां जहांका जितना २ भागहारका प्रमाण बताया है उस २ भागहारका पल्यमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने २ ही वहां २ जीव समझने चाहिये । पहले गुणस्थानसंख्या में असंयत गुणस्थानके भागहारका प्रमाण एकवार असंख्यात कहा था, इसमें एक कम आवलीके असंख्यातमे भागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसको भागहारके प्रमाण में मिलानेसे देवगतिसम्बन्धी असंयत गुणस्थानके भागहारका प्रमाण होता है, इस देवगतिसम्बन्धी भागहार के प्रमाणका पल्य में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतने देवगतिसम्बन्धी असंयतगुणस्थानवर्ती जीव हैं । तथा देवगतिसम्बन्धी असंयतगुणस्थानके भागहारका जो प्रमाण है उसमें एक कम आवलीके असंख्यातमे भागका For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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