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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। २३१ म्यग्दृष्टि मिश्रजीवोंसे असंख्यातगुणे हैं । इनमें अन्तके चार स्थानोमें कुछ २ अधिक समझना चाहिये । भावार्थ-मनुष्य और तिर्यच इन दो गतियोंमें ही देशसंयम गुणस्थान होता है । इनमें तेरह करोड़ मनुष्य और पल्यके असंख्यातमे भाग तिर्यंच हैं। सासादन गुणस्थान चारों गतियोमें होता है । इनमें बावन करोड़ मनुष्य और श्रावकोंसे असंख्यातगुणे इतर तीन गतिके जीव हैं । मिश्र गुणस्थान भी चारो गतियों में होता है इनमें एकसौ चार करोड़ मनुष्य और सासादनवालोंसे संख्यातगुणे शेष तीन गतिके जीव हैं । तथा अव्रत गुणस्थान भी चारो गतियोमें होता है । इनमें सातसौ करोड़ मनुष्य हैं और मिश्रवालोंसे असंख्यातगुणे शेष तीन गतिके जीव हैं । तिरधियसयणवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त वे कोडी। पंचेव य तेणउदी णवठ्ठविसयच्छउत्तरं पमदे ॥ ६२४ ॥ त्र्यधिकशतनवनवतिः षण्णवतिः अप्रमत्ते द्वे कोटी । पञ्चैव च त्रिनवतिः नवाष्टद्विशतषडुत्तरं प्रमत्ते ॥ ६२४ ।। अर्थ-प्रमत्त गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण पांच करोड़ तिरानवे लाख अठानवे हजार दो सौ छह है ( ५९३९८२०६)। अप्रमत्त गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण दो करोड़ ध्यानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन ( २९६९९१०३ ) है । तिसयं भणंति केई चउरुत्तरमत्थपंचयं केई । उवसामगपरिमाणं खवगाणं जाण तहुगुणं ॥ ६२५ ॥ त्रिशतं भणन्ति केचित् चतुरुत्तरमस्तपञ्चकं केचित् ।। उपशामकपरिमाणं झपकाणां जानीहि तद्विगुणम् ॥ ६२५ ॥ अर्थ-उपशमश्रेणिवाले आठवें नौमे दशमे ग्यारहमे गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण कोई आचार्य तीनसौ कहते हैं । कोई तीनसौ चार कहते हैं । कोई दो सौ निन्यानवे कहते हैं । क्षपकश्रेणिवाले आठमे नौमे दशमे बारहमे गुणस्थानवाले जीवोंका प्रमाण उपशम श्रेणिवालोंसे दूना है।। उपशमश्रेणिवाले तीनसौ चार जीवोंका निरंतर आठ समयों में विभाग करते हैं। सोलसयं चउवीसं तीसं छत्तीस तह य बादालं। अडदालं चउववण्णं चउण्णं होंति उवसमगे ॥ ६२६ ॥ षोडशकं चतुर्विशतिः त्रिंशत् षटूत्रिंशत् तथा च द्वाचत्वारिंशत् । अष्टचत्वारिंशत् चतुःपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् भवन्ति उपशमके ॥ ६२६॥ अर्थ-निरंतर आठ समयपर्यन्त उपशमश्रेणि मांडनेवाले जीवोंमें अधिकसे अधिक प्रथम समयमें १६, द्वितीय समयमें २४, तृतीय समयमें ३०, चतुर्थ समयमें ३६, पांचमे समयमें ४२, छटे समयमें ४८, सातमेमें ५४, और आठमेमें ५४, जीव होते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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