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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २१४. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ससमय आवलिरवरः समयोनमुहूर्तकस्तु उत्कृष्टः । मध्यासंख्यविकल्पः विजानीहि अन्तर्मुहूर्तमिमम् ॥ १ ॥ अर्थ-एक समयसहित आवलीप्रमाण कालको जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । एक समय कम मुहूर्तको उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । इन दोनोंके मध्यके असंख्यात भेद हैं। उन सबको भी अन्तर्मुहूर्त ही जानना चाहिये । दिवसो पक्खो मासो उडु अयणं वस्समेवमादी हु। संखेजासंखेजाणंताओ होदि ववहारो ॥ ५७५ ॥ दिवसः पक्षो मास ऋतुरयनं वर्षमेवमादिहि । संख्येयासंख्येयानन्ता भवन्ति व्यवहाराः ।। ५७५ ॥ अर्थ-तीस मुहूर्तका एक दिवस ( अहोरात्र ) पन्द्रह अहोरात्रका एक पक्ष, दो पक्षका एक मास, दो मासकी एक ऋतु, तीन ऋतुका एक अयन, दो अयनका एक वर्ष इत्यादि व्यवहार कालके आवलीसे लेकर संख्यात असंख्यात अनन्त भेद होते हैं । ववहारो पुण कालो माणुसखेत्तम्हि जाणिदवो दु। जोइसियाणं चारे ववहारो खलु समाणोत्ति ॥ ५७६॥ व्यवहारः पुनः कालः मानुषक्षेत्रे ज्ञातव्यस्तु । ज्योतिष्काणां चारे व्यवहारः खलु समान इति ॥ ५७६ ॥ अर्थ-परन्तु यह व्यवहार काल मनुष्यक्षेत्रमें ही समझना चाहिये; क्योंकि मनुष्यक्षेत्रके ही ज्योतिषी देवोंके विमान गमन करते हैं, और इनके गमनका काल तथा व्यवहार काल दोनों समान हैं। प्रकारान्तरसे व्यवहारकालका प्रमाण बताते हैं। ववहारो पुण तिविहो तीदो वटुंतगो भविस्सो दु । तीदो संखेजावलिहदसिद्धाणं पमाणं तु ॥ ५७७ ॥ व्यवहारः पुनत्रिविधोऽतीतो वर्तमानो भविष्यंस्तु ।। अतीतः संख्येयावलिहतसिद्धानां प्रमाणं तु ॥ ५७७ ॥ अर्थ-व्यवहार कालके तीन भेद हैं। भूत वर्तमान भविष्यत् । सिद्धराशिका संख्यात आवलीके प्रमाणसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना ही अतीत कालका प्रमाण है। समओ हु वट्टमाणो जीवादो सवपुग्गलादो वि । भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ॥ ५७८ ॥ समयो हि वर्तमानो जीवात् सर्वपुद्गलादपि । भावी अनंतगुणित इति व्यवहारो भवेत्कालः ।। ५७८ ॥ ... For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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