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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । षड्द्रव्येषु च नाम उपलक्षणानुवादः अस्तित्वकालः । अस्तित्वक्षेत्रं संख्या स्थानस्वरूपं फलं च भवेत् ॥ ५६१ ॥ अर्थ — छह द्रव्योंके निरूपण करनेमें ये सात अधिकार हैं । नाम, उपलक्षणानुवाद, स्थिति, क्षेत्र, संख्या, स्थानस्वरूप, फल । प्रथमही नाम अधिकारको कहते हैं । २.०९ जीवाजीवं दवं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं । संसारत्था वा कम्म विमुक्का अरूवगया ॥ ५६२ ॥ जीवाजीवं द्रव्यं रूप्यरूपीति भवति प्रत्येकम् । संसारस्था रूपिणः कर्मविमुक्ता अरूपगताः ।। ५६२ ॥ अर्थ - द्रव्य सामान्यके दो भेद हैं । एक जीवद्रव्य दूसरा अजीव द्रव्य | जीवद्रव्य के भी दो भेद हैं । एक रूपी दूसरा अरूपी । जितने संसारी जीव हैं वे सब रूपी हैं; क्योंकि उनका कर्म - पुद्गल के साथ एक क्षेत्रावगाहसम्बन्ध है । जो जीव कर्मसे रहित होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो चुके हैं वे सब अरूपी हैं; क्योंकि उनसे कर्मपुद्गलका सम्बन्ध सर्वथा छूट गया है । अजीव द्रव्यमें भी रूपी अरूपीका भेद गिनाते हैं । अजीवेसु य रूषी पुग्गलदवाणि धम्म इदरोवि । आगास कालोव य चत्तारि अरूविणो होंति ॥ ५६३ ॥ अजीवेषु च रूपीणि पुद्गलद्रव्याणि धर्म्म इतरोऽपि । आकाशं कालोपि च चत्वारि अरूपीणि भवन्ति ।। ५६३ ।। अर्थ - अजीव द्रव्यके पांच भेद हैं, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । इनमें एक पुद्गल द्रव्य रूपी है । और शेष धर्म अधर्म, अकाश, काल ये चार द्रव्य अरूपी हैं । उपलक्षणानुवाद अधिकारको कहते हैं । For Private And Personal उवजोगो वण्णचऊ लक्खणमिह जीवपोग्गलाणं तु । गदिठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो दु धम्मचऊ ॥ ५६४ ॥ उपयोगो वर्ण चतुष्कं लक्षणमिह जीवपुद्गलानां तु । गतिस्थानावगाहवर्तनक्रियोपकारस्तु धर्मचतुर्णाम् ॥ ५६४ ॥ अर्थ — ज्ञानदर्शनरूप उपयोग जीवद्रव्यका लक्षण है । वर्ण गन्ध रस स्पर्श यह पुद्गलद्रव्यका लक्षण है । जो जीव और पुद्गलद्रव्यको गमन करनेमें सहकारी हो उसको धर्मद्रव्य कहते हैं । जो जीव तथा पुद्गलद्रव्यको ठहरनेमें सहकारी हो उसको अधर्मद्रव्य कहते हैं । जो सम्पूर्ण द्रव्योंको स्थान देनेमें सहायक हो उसको आकाश कहते हैं । जो समस्त द्रव्योंके अपने २ खभावमें वर्तनेका सहकारी है उसको कालद्रव्य कहते हैं । गो. २७
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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