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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । होजानेपर जघन्य स्थितिस्थान होता है। जो क्रम जघन्य स्थितिस्थानमें बताया वही क्रम एक २ समय अधिक द्वितीयादि स्थितिस्थानोमें समझना चाहिये। तथा इसी क्रमसे ज्ञानावरणके जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक समस्त स्थिति स्थानोंके हो जानेपर, और ज्ञानावरणके स्थिति स्थानोंकी तरह क्रमसे सम्पूर्ण मूल वा उत्तर प्रकृतियों के समस्त स्थितिस्थानों के पूर्ण होनेपर एक भावपरिवर्तन होता है । तथा इस परिवर्तनमें जितना काल लगे उसको एक भावपरिवर्तनका काल कहते हैं । इस प्रकार संक्षेपसे इन पांच परिवर्तनोंका स्वरूप यहांपर कहा है । इनका काल उत्तरोत्तर अनन्तगुणा २ है । नानाप्रकारके दुःखोंसे आकुलित पांच परिवर्तनरूप संसारमें यह जीव मिथ्यात्वके निमित्तसे अनंतकालसे भ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमणके कारणभूत कर्मों को तोड़कर मुक्तिको प्राप्त करनेकी जिनमें योग्यता नहीं है उनको अभव्य कहते हैं। और जिनमें कर्मोंको तोड़कर मुक्तिको प्राप्त करनेकी योग्यता है उनको भव्य कहते हैं। ॥ इति भव्यत्त्वमार्गणाधिकारः समाप्तः ॥ क्रमप्राप्त सम्यक्त्व मार्गणाका वर्णन करते हैं । छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्टाणं । आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ५६० ॥ षट्पञ्चनवविधानामर्थानां जिनवरोपदिष्टानाम् ।। आज्ञया अधिगमेन च श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ॥ ५६०॥ ___ अर्थः-छह द्रव्य पांच अस्तिकाय नव पदार्थ इनका जिनेन्द्र देवने जिस प्रकारसे वर्णन किया है उस ही प्रकारसे इनका जो श्रद्धान करना उसको सम्यक्त्व कहते हैं। यह दो प्रकरासे होता है एक तो केवल आज्ञासे दूसरा अधिगमसे । भावार्थ-जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये छह द्रव्य हैं। तथा कालको छोड़कर शेष ये ही पांच अस्तिकाय कहे जाते हैं । और जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य पाप ये नव प्रकारके पदार्थ हैं । इनका 'जिनेन्द्रदेवने जैसा खरूप कहा है वास्तवमें वही सत्य है,' इस तरह विना युक्तिसे निश्चय किये ही जो श्रद्धान होता है उसको आज्ञासम्यक्त्व कहते हैं । तथा इनके विषयमें प्रत्यक्ष परोक्षरूप प्रमाण, द्रव्यार्थिक आदि नय, नाम स्थापना आदि निक्षेप इत्यादिकेद्वारा निश्चय करके जो श्रद्धान होता है उसको अधिगम सम्यक्त्व कहते हैं। छह द्रव्यों के अधिकारोंका वर्णन करते हैं। छहवेसु य णामं उवलक्खणुवाय अत्थणे कालो। ., अत्थणखेत्तं संखा ठाणसरूवं फलं च हवे ॥ ५६१ ॥ १ सभी परिवर्तनों में जहां क्रमभंग होगा वह गणनामें नहीं आवेगा। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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