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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । नरतिरश्चामोघ एकविकले तिस्रः चतस्रः असंज्ञिनः । संश्यपूर्णकमिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वेपि अशुभत्रिकम् ॥ ५२९ ॥ अर्थ—मनुष्य और तिर्यंचोंके सामान्यसे छहों लेश्या होती हैं । एकेन्द्रिय और विकलत्रय (द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय ) जीवोंके कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके कृष्ण आदि चार लेश्या होती हैं, क्योंकि असंज्ञी पंचेन्द्रिय कपोतलेश्यावाले जीव मरणकर पहले नरकको जाता है । तथा तेजोलेश्यासहित मरनेसे भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होता है । कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यासहित मरनेसे यथायोग्य मनुष्य या तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है । संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक तथा अपि शब्दसे असंज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक और सासादन गुणस्थानवर्ती निवृत्यप र्याप्त तथा भवनत्रिक जीवोंमें कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्या ही होती है । उपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके सासादन गुणस्थानवाले जीवके अपर्याप्त अवस्थामें तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं। भोगा पुण्णगसम्मे काउस्स जहण्ण्यिं हवे णियमा। सम्मे वा मिच्छे वा पजत्ते तिण्णि सुहलेस्सा ॥ ५३०॥ भोगापूर्णकसम्यक्त्वे कापोतस्य जघन्यकं भवेत् नियमात् । ___सम्यक्त्वे वा मिथ्यात्वे वा पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः ॥ ५३० ॥ अर्थ-भोगभूमियां निर्वृत्यपर्याप्तक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें कापोतलेश्याका जघन्य अंश होता है । तथा भोगभूमिया सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवोंके पर्याप्त अवस्थामें पीत आदि तीन शुभ लेश्या ही होती हैं । भावार्थ-पहले मनुष्य या तिथंच आयुका बंध करके पीछे क्षायिक या वेदक सम्यक्त्वको स्वीकार करके यदि कोई कर्मभूमिज मनुष्य या तिर्यंच सम्यक्त्वसहित मरण करै तो वह भोगभूमिमें उत्पन्न होता है, वहां पर उसके कापोत लेश्याके जघन्य अंशरूप संक्लेश परिणाम होते हैं । परन्तु पर्याप्त अवास्थामें सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके शुभ लेश्या ही होती है । अयदोत्ति छ लेस्साओ सुहतियलेस्सा हु देसविरदतिये । तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ ५३१॥ असंयत इति षड् लेश्याः शुभत्रयलेश्या हि देशविरतत्रये। ततः शुक्ला लेश्या अयोगिस्थानमलेश्यं तु ॥ ५३१ ॥ अर्थ-चतुर्थ गुणस्थानपर्यन्त छहों लेश्या होती हैं। तथा देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्त विरत इन तीन गुणस्थानोंमें तीन शुभलेश्या ही होती हैं । किन्तु इसके आगे For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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