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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १८९ भोगभूमियां मिथ्यादृष्टि तियेच वा मनुष्य, भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी देवोंमें उत्पन्न होते हैं । तथा कृष्ण नील कापोत पीत लेश्याके मध्यम अंशोंके साथ मरे हुए तिर्यंच वा मनुष्य भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी वा सौधर्म ईशान स्वर्गके मिथ्यादृष्टि देव, बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक जलकायिक वनस्पतिकायिक जीवोंमें उत्पन्न होते हैं । किण्हतियाणं मज्झिमअंसमुदा तेउवाउवियलेसु । सुरणिरया सगलेस्सहिं णरतिरियं जांति सगजोग्गं ॥ ५२७ ॥ कृष्णत्रयाणां मध्यमांशमृतास्तेजोवायुविकलेषु । सुरनिरयाः स्वकलेश्याभिः नरतियचं यान्ति स्वकयोग्यम् ॥ ५२७ ॥ अर्थ-कृष्ण नील कापोत इन तीन लेश्याओंके मध्यम अंशोके साथ मरे हुए तिर्यंच या मनुष्य, तेजकायिक वातकायिक विकलत्रय असंज्ञी पंचेन्द्रिय साधारण-वनस्पति इनमें यथायोग्य उत्पन्न होते हैं। और भवनत्रय आदि सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तके देव तथा सातो पृथ्वीसम्बन्धी नारकी अपनी २ लेश्याके अनुसार मनुष्यगति या तिर्यंचगतिको प्राप्त होते हैं । भावार्थ-जिस गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध हुआ हो उस ही गतिमें मरण समयपर होनेवाली लेश्याके अनुसार उत्पन्न होता है । जैसे मनुष्यअवस्थामें किसीने देवायुका बन्ध किया और मरणसमयपर उसके कृष्ण आदि अशुभ लेश्या हुई तो वह मरण करके भवनत्रिकमें उत्पन्न होगा-उत्कृष्ट देवोंमें नहीं होगा। यदि शुभ लेश्या हुई तो यथायोग्य कल्पवासियोंमें भी उत्पन्न होगा। क्रमप्राप्त स्वामी अधिकारका वर्णन करते हैं। काऊ काऊ काऊ णीला णीला य णीलकिण्हा य । किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीणं ॥ ५२८ ॥ कापोता कापोता कापोता नीला नीला च नीलकृष्णे च । कृष्णा च परमकृष्णा लेश्या प्रथमादिपृथिवीनाम् ॥ ५२८ ॥ अर्थ-प्रथम पृथ्वीमें कपोतलेश्याका जघन्य अंश है। दूसरी पृथ्वीमें कपोतलेश्याका मध्यम अंश है । तीसरी पृथ्वीमें कपोतलेश्याका उत्कृष्ट अंश और नीललेश्याका जघन्य अंश है । चौथी पृथ्वीमें नीललेश्याका मध्यम अंश है । पांचमी पृथ्वीमें नीललेश्याका उत्कृष्ट अंश और कृष्णलेश्याका जघन्य अंश है । छठ्ठी पृथ्वीमें कृष्णलेश्याका मध्यम अंश है। सातमी पृथ्वीमें कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अंश है । भावार्थ-खामी अधिकारमें भावलेश्याकी अपेक्षा ही कथन है, इस लिये उपर्युक्त प्रकारसे नरकोंमें भी भावलेश्या ही समझना। णरतिरियाणं ओघो इगिविगले तिण्णि चउ असण्णिस्स । सण्णिअपुण्णगमिच्छे सासणसम्मेवि असुहतियं ॥ ५२९ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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