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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला। real श्रीमन्नेमिचन्द्राय नमः। अथ छायाभाषाटीकोपेतः गोम्मटसारः । जीवकाण्डम् । अथ श्रीनेमिचन्द्र सैद्धान्तिकचक्रवर्ती गोम्मटसार ग्रन्थके लिखनेके पूर्व ही निर्विघ्न समाप्ति नास्तिकतापरिहार, शिष्टाचारपरिपालन और उपकारस्मरण-इन चार प्रयोजनोंसे इष्टदेवको नमस्कार करते हुए इस ग्रन्थमें जो कुछ वक्तव्य है उसकी "सिद्धं" इत्यादि गाथासूत्रद्वारा प्रतिज्ञा करते हैं: सिद्धं सुद्धं पणमिय जिणिन्दवरणेमिचन्दमकलंकं । गुणरयणभूसणुदयं जीवस्स परूवणं वोच्छं ॥१॥ सिद्धं शुद्धं प्रणम्य जिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रमकलङ्कम् । गुणरत्नभूषणोदयं जीवस्य प्ररूपणं वक्ष्ये ॥ १ ॥ अर्थ-जो सिद्ध अवस्था अथवा खात्मोपलब्धिको प्राप्त हो चुका है, अथवा न्यायके अनेक प्रमाणोंसे जिसकी सत्ता सिद्ध है, और जो चार घातिया-द्रव्यकर्मके अभावसे शुद्ध, और मिथ्यात्वादि भावकों के नाशसे अकलङ्क हो चुका है, और जिसके हमेशाही सम्यक्त्वादि गुणरूपी रत्नोंके भूषणोंका उदय रहता है, इस प्रकारके श्रीजिनेन्द्रवरनेमिचन्द्रखामीको नमस्कार करके, जो उपदेशद्वारा पूर्वाचार्य परम्परासे चला आरहा है इस लिये सिद्ध, और पूर्वापर विरोधादि दोषोंसे रहित होनेके कारण शुद्ध, और दूसरेकी निन्दा आदि न करने के कारण तथा रागादिका उत्पादक न होनेसे निष्कलङ्क है, और जिससे सम्यक्त्वादि गुणरूपी रत्नभूषणोंकी प्राप्ति होती है जो विकथा आदिकी तरह रागका कारण नहीं है इस प्रकारके जीवप्ररूपण नामक ग्रन्थको अर्थात् जिसमें अशुद्ध जीवके स्वरूप भेद प्रभेद आदि दिखलाये हैं इस प्रकारके ग्रन्थको कहूंगा। गो. १ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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