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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । परमावधिवरक्षेत्रेणावहितोत्कृष्टावधिक्षेत्रं तु । सर्वाधिगुणकारः कालेऽपि असंख्यलोकस्तु ॥ ४१८ ॥ अर्थ -- उत्कृष्ट अवधि ज्ञानके क्षेत्र में परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना सर्वावधिसम्बन्धी क्षेत्र केलिये गुणकार है । तथा सर्वावधिसम्बन्धी कालका प्रमाण लानेके लिये असंख्यात लोकका गुणकार है । भावार्थ - असंख्यात लोकके प्रमाणको पांचवार लोकके प्रमाणसे गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उतना सर्वावधि ज्ञानके उत्कृष्ट क्षेत्रका प्रमाण है । इसमें परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रका भाग देनेसे सर्वाधिके क्षेत्रसम्बन्धी गुणकारका प्रमाण निकलता है । अर्थात् इस गुणकारका परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रप्रमाणके साथ गुणा करनेसे सर्वावधिके क्षेत्रका प्रमाण निकलता है । और इस ही तरह सर्वावधिके कालका प्रमाण निकालनेकेलिये असंख्यात लोकका गुणकार है । अर्थात् असंख्यातलोकका परमावधिके उत्कृष्ट कालप्रमाणके साथ गुणा करनेसे सर्वाधिके कालका प्रमाण निकलता है । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir परमावधि के विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट कालका प्रमाण निकालनेकेलिये दो करणसूत्रों को कहते हैं । इच्छिद सिच्छेदं दिण्णच्छेदेहिं भाजिदे तत्थ । लद्धमिददिण्णरासीणभासे इच्छिदो रासी ॥ ४१९ ॥ इच्छितराशिच्छेदं देयच्छेदैर्भाजिते तत्र । लब्धमितदेय राशीनामभ्यासे इच्छितो राशिः ॥ ४१९ ॥ अर्थ — विवक्षित राशिके अर्धच्छेदोंमें देय राशिके अर्धच्छेदोंका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतनी जगह देयराशिको रखकर परस्पर गुणा करनेसे विवक्षित राशिका प्रमाण निकलता है । दिण्णच्छेदे णवदिलोगच्छेदेण पदधणे भजिदे । लद्धमिदलोगगुणणं परमावहिचरिमगुणगारो ॥ ४२० ॥ देयच्छेदेनावहितलोकच्छेदेन पधने भजते । लब्धमितलोकगुणनं परमावधिचरमगुणकारः ॥ ४२० ॥ अर्थ- देयराशिके अर्धच्छेदोंका लोकके अर्धच्छेदों में भाग देनेसे जो लब्ध आ उसका विवक्षित संकल्पित धनमें भाग देनेसे जो प्रमाण लब्ध आवे उतनी जगह लोकप्रमाको रखकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो वह विवक्षित पदमें क्षेत्र या कालका गुणकार होता है । ऐसे ही परमावधिके अन्तिम भेदमें भी गुणकार जानना । आवलिअसंखभागा जहण्णदवस्स होंति पजाया । कालस्स जहण्णादो असंखगुणहीणमेत्ता हु ॥ ४२१ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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