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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। १५५ आवल्यसंख्यभागा इच्छितगच्छधनमानमात्राः । देशावधेः क्षेत्रे कालेऽपि च भवन्ति संवर्गे ॥ ४१६ ॥ अर्थ-किसी भी परमावधिके विवक्षित विकल्पमें अथवा विवक्षित कालके विकल्पमें संकल्पित धनका जितना प्रमाण हो उतनी जगह आवलीके असंख्यातमे भागोंको रखकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो वही देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट कालमें गुणकारका प्रमाण होता है । भावार्थ-परमावधिके प्रथम विकल्पमें संकल्पित धनका प्रमाण एक और दूसरे विकल्पमें तीन तथा तीसरे विकल्पमें छह चौथे विकल्पमें दश पांचमे विकल्पमें पन्द्रह छठे विकल्पमें इक्कीस सातमे विकल्पमें अट्ठाईस होता है । इसी तरह आगे भी संकल्पित धनका प्रमाण समझना चाहिये । परमावधिके जिस विकल्पके क्षेत्र या कालका प्रमाण निकालना हो, उस विकल्पके संकल्पित धनके प्रमाणकी बराबर आवलीके असंख्यातमे भागोंको रखकर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, उसका देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट कालके प्रमाणके साथ गुणा करनेसे परमावधिके विवक्षित विकल्पके क्षेत्र और कालका प्रमाण निकलता है। ___ जितनेमा भेद विवक्षित हो वहां पर्यन्त एकसे लेकर एक एक अधिक अङ्क रखकर सबको जोड़नेसे जो राशि उत्पन्न हो वह उस विवक्षित भेदका संकल्पित धन होता है । जैसे प्रथम भेदका एक, दूसरे भेदका तीन, तीसरे भेदका छह, इत्यादि । प्रकारान्तरसे गुणकारका प्रमाण बताते हैं । गच्छसमा तकालियतीदे रूऊणगच्छधणमेत्ता। उभये वि य गच्छस्स य धणमेत्ता होंति गुणगारा ॥ ४१७ ॥ गच्छसमाः तात्कालिकातीते रूपोनगच्छधनमात्राः । उभयेऽपि च गच्छस्य च धनमात्रा भवन्ति गुणकाराः ॥ ४१७ ॥ अर्थ-विवक्षित गच्छकी जो संख्या हो उतने प्रमाणको विवक्षित गच्छसे अव्यवहित पूर्वके गच्छके प्रमाणमें मिला कर एक कम करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें विवक्षित गच्छकी संख्या मिलानेसे संकल्पित धनका प्रमाण होता है । यही गुणकारका प्रमाण है । भावार्थ-जैसे चौथा भेद विवक्षित है, तो गच्छके प्रमाण चारको अव्यवहित पूर्वके भेद तीनमें मिलाकर एक कम करनेसे छह होते हैं, इसमें विवक्षित गच्छके प्रमाण चारको मिलानेसे दश होते हैं, यही गुणकारका प्रमाण है। तथा विवक्षित भेदका संकल्पितधन है। परमावहिवरखेत्तेणवहिदउक्कस्सओहिखेत्तं तु । सबावहिगुणगारो काले वि असंखलोगो दु ॥ ४१८॥ १ यही तीसरे भेदका संकल्पितधम है। For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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