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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अवरावगाहनमानं जघन्यकमवधिक्षेत्रं तु ॥ ३७७ ॥ अर्थ- सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी उत्पन्न होनेसे तीसरे समयमें जो जघन्य अवगाहना होती है उसका जितना प्रमाण है उतना ही अवधि ज्ञानके जघन्य क्षेत्रका प्रमाण है । भावार्थ-इतने क्षेत्रमें जितने जघन्य द्रव्य होंगे जिसका कि प्रमाण पहले बताया गया है उनको जघन्य देशावधिवाला जान सकता है इसके बाहर नहीं। जघन्य क्षेत्रके विषयमें विशेष कथन करते हैं। अवरोहिखेत्तदीहं वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो। अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहणपमाणं तु ॥ ३७८ ॥ अवरावधिक्षेत्रदीर्घ विस्तारोत्सेधकं न जानीमः । अन्यत् पुनः समीकरणे अवरावगाहनप्रमाणं तु ॥ ३७८ ॥ अर्थ-जघन्य अवधि ज्ञानके क्षेत्रकी उंचाई लम्बाई चौड़ाईका भिन्न २ प्रमाण हम नहीं जानते। तथापि यह मालुम है कि समीकरण करनेसे जितना जघन्य अवगाहनाका प्रमाण होता है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है। अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स । सूइस्स य घणपदरं होदि हु तक्खेत्तसमकरणे ॥ ३७९ ॥ अवरावगाहनमानमुत्सेधाङ्गुलासंख्यभागस्य । __ सूचेश्च घनप्रतरं भवति हि तत्क्षेत्रसमीकरणे ॥ ३७९ ॥ अर्थ-उत्सेधाङ्गुलकी अपेक्षासे उत्पन्न व्यवहार सूच्यङ्गुलके असंख्यातमे भागप्रमाणभुजा कोटी और बेधमें परस्पर गुणा करनेसे जितना जघन्य अवगाहनाका प्रमाण होता है उतना ही समीकरण करनेसे जघन्य अवधि ज्ञानका क्षेत्र होता है । भावार्थ-गुणा करनेसे अङ्गुलके असंख्यातमे भागप्रमाण जघन्य अवधिका क्षेत्र होता है । अवरं तु ओहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा । सुहमोगाहणमाणं उवरि पमाणं तु अंगुलयं ॥ ३८॥ अवरं तु अवधिक्षेत्रमुत्सेधमङ्गुलं भवेद्यस्मात् । सूक्ष्मावगाहनमानमुपरि प्रमाणं तु अङ्गुलकम् ॥ ३८० ॥ अर्थ-जो जघन्य अवधिका क्षेत्र पहले बताया है वह भी उत्सेधाङ्गुल ही है; क्यों कि वह सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना प्रमाण है। परन्तु आगे अङ्गुलसे प्रमाणाङ्गुलका ग्रहण करना । भावार्थ-जघन्य अवगाहनाके समान अङ्गुलके असंख्यातमे भाग जो जघन्य अवधिका क्षेत्र बताया है वह भी उत्सेधाङ्गुलकी अपेक्षासे ही है For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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