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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । १३३. अर्थ – द्वादशाङ्गके समस्त पद एक सौ बारह करोड़ ज्यासी लाख अट्ठावन हजार पांच ( ११२८३५८००५ ) होते हैं । अङ्गबाह्य अक्षर कितने हैं उनका प्रमाण बताते हैं । अडकोडिएयलक्खा अट्ठसहस्सा य एयसदिगं च । पण्णत्तरि वण्णाओ पइण्णयाणं पमाणं तु ॥ ३५० ॥ अष्टकोट्ये लक्षाणि अष्टसहस्राणि च एकशतकं च । पञ्चसप्ततिः वर्णाः प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु ॥ ३५० ॥ अर्थ — आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एकसौ पचहत्तर ( ८०१०८१७५) प्रकीर्णक ( अङ्गबाह्य ) अक्षरोंका प्रमाण है । चार गाथाओं द्वारा उक्त अर्थको समझने की प्रक्रिया बताते हैं । तेत्तीस जणाई सत्तावीसा सरा तहा भणिया । चत्तारि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ ॥ ३५१ ॥ त्रयस्त्रिंशत् व्यंजनानि सप्तविंशतिः स्वरास्तथा भणिताः । चत्वारश्च योगवहाः चतुःषष्ठिः मूलवर्णाः ॥ ३५१ ॥ अर्थ - तेतीस व्यंजन सत्ताईस वर चार योगवाह इस तरह कुल चौंसठ मूलवर्ण होते हैं । भावार्थ - खरके विना जिनका उच्चारण न हो सके ऐसे अर्धाक्षरोंको व्यंजन कहते हैं। उनके क् ख् से लेकर ह पर्यन्त तेतीस भेद हैं । अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ ये नव स्वर हैं, इनके हख दीर्घप्लुतकी अपेक्षा सत्ताईस भेद होते हैं । अनुखार विसर्ग जिह्वामूलीय उपधूमानीय ये चार योगवाह हैं । सब मिलकर चौंसठ अनादिनिधन मूलवर्ण हैं । यद्यपि दीर्घ ऌ वर्ण संस्कृत में नहीं है तब भी अनुकरणमें अथवा देशान्तरोंकी भाषा में आता है इसलिये चौंसठ वर्णों में इसका भी पाठ है 1 चउसद्विपदं विरलिय दुगं च दाउण संगुणं किया । रुऊणं च कुए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ॥ ३५२ ॥ चतुःषष्ठिपदं विरलयित्वा द्विकं च दत्त्वा संगुणं कृत्वा । रूपोने च कृते पुनः श्रुतज्ञानस्याक्षराणि भवन्ति ॥ ३५२ ॥ अर्थ- उक्त चौंसठ अक्षरोंका विरलन करके प्रत्येकके ऊपर दोका अङ्क देकर परस्पर सम्पूर्ण दो अङ्कोंका गुणा करनेसे लब्ध राशिमें एक घटा देनेसे जो प्रमाण रहता है उतने ही श्रुत ज्ञानके अक्षर होते हैं । अक्षर कितने हैं उसका प्रमाण बताते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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