SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । बहु बहुविधं च क्षिप्रानिः सृदनुक्तं ध्रुवं च इतरच्च । तत्रैकैकस्मिन् जाते षटूत्रिंशत् त्रिशतभेदं तु ॥ ३०९ ॥ अर्थ — उक्त मतिज्ञानके विषयभूत व्यंजन पदार्थके बारह भेद हैं । बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिसृत्, निसृत्, अनुक्त, उक्त । इनमें से प्रत्येक विषय में मतिज्ञानके उक्त अट्ठाईस भेदोंकी प्रवृत्ति होती है । इसलिये बारहको अट्ठाईस से गुणा करने पर मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं । बहुवत्तिजादिगणे बहुबहुविहमियरमियरगहणम्हि | सगणामादो सिद्धा खिप्पादी सेदरा य तहा ॥ ३१० ॥ बहुव्यक्तिजातिग्रहणे बहु बहुविधमितरदितरग्रहणे । स्वकनामतः सिद्धाः क्षिप्रादयः सेतराश्च तथा ॥ ३१० ॥ अर्थ — एक जातिकी बहुतसी व्यक्तियोंको बहु कहते हैं । अनेक जातिके बहुत पदाको बहुविध कहते हैं । एक जातिकी एक व्यक्तिको अल्प ( एक ) कहते हैं । एक जातिकी अनेक व्यक्तियोंको एकविध कहते हैं । क्षिप्रादिक तथा उनके प्रतिपक्षियोंका उनके नामसे ही अर्थ सिद्ध है । भावार्थ - शीघ्र पदार्थको क्षिप्र कहते हैं, जैसे तेजी से वहता हुआ जलप्रवाह । मन्द पदार्थको अक्षिप्र कहते हैं, जैसे कछुआ ', धीरे २ चलनेवाला घोडा मनुष्य आदि । छिपे हुएको ( अप्रकट ) अनिसृत कहते हैं, जैसे जलमें डूबा हुआ हस्ती आदि । प्रकट पदार्थको निसृत कहते हैं, जैसे सामने खड़ा हुआ हस्ती । जो पदार्थ अभिप्रायसे समझा जाय उसको अनुक्त कहते हैं । जैसे किसी के हाथ या शिरसे इसारा करने पर किसी कामके विषयमें हां या ना समझना । जो शब्दके द्वारा कहा जाय उसको उक्त कहते हैं, जैसे यह घट है । स्थिर पदार्थको ध्रुव कहते हैं, जैसे पर्वत आदि । क्षणस्थायी ( अस्थिर ) पदार्थको अध्रुव कहते हैं, जैसे विजली आदि । अनिसृत ज्ञानविशेषको दिखाते हैं । वत्थुस्स पदेसादो वत्थुग्गहणं तु वत्थुदेसं वा । सयलं वा अवलंबिय अणिस्सिदं अण्णवत्थुगई ॥ ३११ ॥ वस्तुनः प्रदेशात् वस्तुग्रहणं तु वस्तुदेशं वा । सकलं वा अवलम्ब्य अनिसृतमन्यवस्तुगतिः ॥ ३११ ॥ अर्थ - वस्तुके एकदेशको देखकर समस्त वस्तुका ज्ञान होना, अथवा वस्तुके एकदेश या पूर्ण वस्तुका ग्रहण करके उसके निमित्तसे किसी दूसरी वस्तुके होनेवाले ज्ञानको भी अनिसृत कहते हैं । For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy