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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः। हो तब तक उसको व्यञ्जन कहते हैं, प्रकट होनेपर अर्थ कहते हैं। अत एव चक्षु और मनके द्वारा व्यञ्जनावग्रह नहीं होता; क्योंकि ये अप्राप्यकारी हैं। जिस तरह नवीन मट्टीके सकोरा आदिपर एक दो पानीकी बूंद पड़नेसे वह व्यक्त नहीं होती; किन्तु अधिक बूंद पड़नेसे वही व्यक्त हो उठती है । इस ही तरह श्रोत्रादिकके द्वारा प्रथम अव्यक्त शब्दादिकके ग्रहणको व्यंजनावग्रह, और पीछे उसहीको प्रकटरूपसे ग्रहण करनेपर अर्थावग्रह कहते हैं । व्यंजन पदार्थका अवग्रह ही होता है, ईहा आदिक नहीं होते, इसलिये चार इन्द्रियोंकी अपेक्षा व्यंजनावग्रहके चार ही भेद हैं । पूर्वोक्त चौवीस भेदोंमें इन चार भेदोंको मिलानेसे मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। विसयाणं विसईणं संजोगाणंतरं हवे णियमा । अवगहणाणं गहिदे विसेसकंखा हवे ईहा ॥ ३०७॥ विषयाणां विषयिणां संयोगानन्तरं भवेत् नियमात् । - अवग्रहज्ञानं गृहीते विशेषाकांक्षा भवेदीहा ॥ ३०७ ॥ अर्थ-पदार्थ और इन्द्रियोंका योग्य क्षेत्रमें अवस्थानरूप सम्बन्ध होनेपर सामान्यका अवलोकन करनेवाला दर्शन होता है। और इसके अनन्तर विशेष आकार आदिकको ग्रहण करनेवाला अवग्रह ज्ञान होता है । इसके अनन्तर जिस पदार्थको अवग्रहने ग्रहण किया है उसहीके किसी विशेष अंशको ग्रहण करनेवाला ईहा ज्ञान होता है । भावार्थ-जिस तरह किसी दाक्षिणात्य पुरुषको देखकर यह कुछ है इस तरहके महासामान्यावलोकनको दर्शन कहते हैं। इसके अनन्तर 'यह पुरुष है' इस तरहके ज्ञानको अवग्रह कहते हैं। और इसके अनन्तर "यह दाक्षिणात्य ही होना चाहिये" इस तरह के विशेष ज्ञानको ईहा कहते हैं । ईहणकरणेण जदा सुणिण्णओ होदि सो अवाओ दु। कालांतरेवि णिण्णिदवत्थुसमरणस्स कारणं तुरियं ॥३०८॥ ईहनकरणेन यदा सुनिर्णयो भवति स अवायस्तु । कालान्तरेऽपि निर्णीतवस्तुस्मरणस्य कारणं तुर्यम् ॥ ३०८ ॥ अर्थ-ईहा ज्ञानके अनन्तर वस्तु के विशेष चिह्नोंको देखकर जो उसका विशेष निर्णय होता है उसको अवाय कहते हैं । जैसे भाषा वेष विन्यास आदिको देखकर “यह दाक्षिणात्य ही है" इस तरह के निश्चयको अवाय कहते हैं । जिसके द्वारा निर्णीत वस्तुका कालान्तरमें भी विस्मरण न हो उसको धारणा ज्ञान कहते हैं। उक्त चार तरहके ज्ञानोंका बारह तरहका विषय दिखाते हैं। बहु बहुविहं च खिप्पाणिस्सिदणुत्तं धुवं च तत्थेकेके जादे छत्तीसं तिसयभेदं तु ॥ ३०९ ॥ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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