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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोम्मटसार । १०९. अर्थ - गर्भज संज्ञी नपुंसक १ पुल्लिङ्ग २ तथा स्त्रीलिङ्ग ३ । सम्मूर्छन संज्ञी पर्याप्त ४ और अपर्याप्त ५ । भोगभूमिया ६ । असंज्ञी गर्भज नपुंसक ७ पुल्लिङ्ग ८ स्त्रीलिङ्ग ९ । व्यन्तर १० । और ज्योतिषी ११ । इन ग्यारह स्थानोंको क्रमसे स्थापन करना चाहिये । जिसमें पहला स्थान सबसे स्तोक है । और उससे आगेके तीन स्थान संख्यातगुणे २ हैं । पांचमा स्थान आवलीके असंख्यातमे भाग गुणा है । छट्ठा स्थान पल्य के असंख्यात मे भागगुणा है । इससे आगे के स्थान क्रमसे संख्यातगुणे २ हैं । भावार्थ - चोथे और पांचमे स्थानवाले जीव नपुंसक ही होते हैं । छट्टे स्थानवाले पुल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग ही होते हैं । ६५५३६ से गुणित प्रतराङ्गुलका, आठवार संख्यातका, एकवार आवलीके असंख्यात भागका, एकवार पल्य के असंख्यातमे भागका, जगत्प्रतर में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना ही पहले स्थानका प्रमाण है । इससे आगेके तीन स्थान क्रमसे संख्यातगुणे २ हैं । पांचमा स्थान आवलीके असंख्यातमे भागगुणा, छट्ठा स्थान पल्यके असंख्यात मे भागगुणा, सातमा आठमा नौमा दशमा ग्यारहमा स्थान क्रम से संख्यातगुणा २ है । इति वेदमार्गणाधिकारः ॥ -5190 Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir क्रमप्राप्त कषाय-मार्गणाके वर्णनकी आदिमें प्रथम कषायका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताते हैं । सुहदुक्खसुबहु सस्सं कम्म खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसारदूरमेरं तेण कसाओत्ति णं वेंति ।। २८१ ॥ सुखदुःखसुबहु सस्यं कर्मक्षेत्रं कृषति जीवस्य । संसारदूरमर्यादं तेन कषय इतीमं ब्रुवन्ति ॥ २८१ ॥ अर्थ - जीवके सुख दुःख आदि अनेक प्रकार के धान्यको उत्पन्न करनेवाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्रका (खेत) यह कर्षण करता है इसलिये इसको कषाय कहते हैं । कृष धातुकी अपेक्षासे कषाय शब्दका अर्थ बताकर अब हिंसार्थक कष धातुकी अपेक्षा कषाय शब्दकी निरुक्ति बताते हैं । सम्मत्तदेससयलचरित्तजहक्खादचरणपरिणामे । घाति वा कषाया चउसोलअसंखलोगमिदा ॥ २८२ ॥ सम्यक्तदेशसकलचरित्रयथाख्यातचरणपरिणामान् । घातयन्ति वा कषायाः चतुः षोडशासंख्यलोकमिताः ॥ २८२ ॥ अर्थ – सम्यक्त्व देशचारित्र सकलचारित्र यथाख्यातचारित्ररूपी परिणामोंको जो कषे घाते न होने दे उसको कषाय कहते हैं । इसके अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण प्रत्या For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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