SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गोम्मटसारः । ९३ अर्थ — जिस औदारिक शरीरका स्वरूप पहले वताचुके हैं, वही शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तबतक मिश्र कहाजाता है । और उसके द्वारा होनेवाले योगको औदारिकमिश्रयोग कहते हैं । भावार्थ - शरीर पर्याप्ति से पूर्व कार्मणशरीरकी सहायता से होनेवाले औदारिक काययोगको औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं । वैयिक काययोगको बताते हैं । विगुणत्तिं विक्किरियं वा हु होदि वेगुवं । तिस्से भवं च णेयं वेगुधियकायजोगो सो ॥ २३१ ॥ विविधगुणर्द्धियुक्तं विक्रियं वा हि भवति विगूर्वम् । तस्मिन् भवं च ज्ञेयं वैगूर्विककाययोगः सः ॥ २३१ ॥ अर्थ - नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियोंसे युक्त देव तथा नारकियों के शरीरको वैक्रियिक अथवा विगूर्व कहते हैं । और इसके द्वारा होनेवाले योगको वैमूर्विक अथवा वैकियिककाययोग कहते हैं । वैक्रियिक काययोगकी सम्भावना कहां २ पर है यह बताते हैं । बादरतेऊबाऊपंचिदियपुण्णगा विगुवंति | ओरालियं सरीरं विगुणप्पं हवे जेसिं ॥ २३२ ॥ बादरतेजोवायुपंचेन्द्रियपूर्णका विगूर्वन्ति । औरालिकं शरीरं विगूर्वणात्मकं भवेत् येषाम् ॥ २३२ ॥ अर्थ- बादर ( स्थूल ) तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय, और भोगभूमिज तिर्थ मनुष्य भी विक्रिया करते हैं । इसलिये इनका भी औदारिक शरीर वैक्रियिक होता है। भावार्थ — इन जीवों का भी औदारिकशरीर वैक्रियिक होता है । परन्तु यह विक्रिया अपृथक् विक्रिया होती है । किन्तु भोगभूमिज और चक्रवर्ती पृथक् विक्रिया करते हैं । वैक्रियिक मिश्र काययोगको बताते हैं । ayarsarथं विजाणमिस्सं तु अपरिपुण्णं तं । जो तेण संपजोगो वेगवियमिस्सजोगो सो ॥ २३३ ॥ वैर्विकमुक्तार्थं विजानीहि मिश्रं तु अपरिपूर्णं तत् । यस्तेन संप्रयोगो वैगूर्विक मिश्रयोगः सः ॥ २३३॥ अर्थ—उक्त वैक्रियिक शरीर जबतक पूर्ण नहीं होता तब तक उसको वैक्रियिकमिश्र कहते हैं । और उसके द्वारा होनेवाले योगको वैक्रियिकमिश्रकाययोग कहते हैं । भावार्थ For Private And Personal
SR No.010692
Book TitleGommatsara Jivakand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1916
Total Pages305
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy