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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ७३ आत्माने माटे उन्नत मार्ग वतावनार हता, ते धर्म ऋषभादि २३ तीर्थंकरोए बतावेल धर्मथी भिन्न न हतो, देश कालने अनुसार संशोधन अवश्य करेलु हतुं, पण तेओ जैनधर्मना आदि प्रवर्तक न हता, ते प्रभु काश्यप गोत्रीय क्षत्रियोमांनी विमल विभूति हता, दिव्य ज्ञान प्राप्त करीने चतुर्विध संघने धर्म पथ वतावनार होवाथी तेओ नेता पण हता, कारणके सघने तेओएज ज्ञानदर्शन-चरित्र-अहिंसा-सत्य-तप-त्याग-संयमादिमां प्रवृत्त कर्यो हतो, संसारना कल्याणार्थे तेओए संघने दान-शील-तप-भाव एम धर्मना चार मेद वताव्या, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप संघनी स्थापना करीने तेओए तेमने सगठननी परम शक्तिनुं तत्व वताव्युं हतुं, देवलोकने विषे इन्द्र जेम देवोमा महाप्रभावान्, हजारो देवोनो नायक अने सर्वोत्तम छे, तेम पदार्थ विज्ञाननो निश्चय प्रगट करवावाळा तत्ववेत्ताओमां महावीरप्रभु ऐश्वर्यशाळी हता, संसार अने मोक्ष तेमज सारभूत तत्वोने प्रगट करवामा प्रखर प्रकाशक हता। सात तत्व-नव पदार्थ आदि महान् तेमज गंभीर पदार्थोनो सरळ आशय निपुणताथी जनतामां तेओए प्रगट कर्यो हतो। जे तरफ इन्द्रनी दृष्टि रहे छे, तेज तरफ तेना ५०० प्रधानोनी नजर पण रहे छे, तेज रीते अनेकान्त पर तेमोनी दृष्टि हती। तेज मार्गर्नु ससारे पण अनुसरण कर्यु । जेथी तेओ पण सहस्रनेत्र गणाया । रूपवल-वर्ण-वीर्य विगेरेमा तेो सर्वोत्तम हता। मुनिगणरूपी ताराओमा तेओ मुनिचन्द्ररूप ईश्वर हता ॥ ७ ॥ से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे । अणाइले वा अकसायी मुक्के, सक्केव देवाहिवई जुईमं ॥८॥ संस्कृतच्छाया स प्रशयाऽक्षयसागरो वा, महोदधिरिव अनन्तपारः। अनाविलोवाअकषायी मुक्तः,शक इव देवाधिपतिद्युतिमान् ॥८॥ 'सं० टीका–स इति, पुनरसौ भगवान् प्रज्ञयाऽक्षयोऽक्षीणज्ञानः, प्रज्ञायत अनयेति प्रज्ञा तयाऽक्षयो, ज्ञातव्येऽर्थे तस्य बुद्धिर्न प्रक्षीयते
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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