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________________ ७४ . .वीरस्तुतिः। . . न प्रतिहन्यते वेति, "वुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञेत्यमरः" । अथवा तस्य बुद्धि केवलज्ञानाख्या सा साद्यनन्ता-साद्यपर्यवसाना कालतो, द्रव्यक्षेत्रभावापेक्षयाऽप्यनन्ता तयाऽक्षयः, यथा सागरी महोदधिः खयंभूरमणः समुद्रः स इवानन्तपारः । यथासौ विस्तीर्णो गंभीरजलोऽक्षोभ्यस्तथैव तस्य भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञाऽनन्तप्रज्ञा, स्वयंभूरमणसमुद्रादनन्तगुणितो गंमीरोऽक्षोभ्यश्च, अनाविलोऽकलुपजलः, "कलुपोऽनच्छ आविल इत्यमरः" । नाविलोऽनाविलो निर्मलस्तथैव कर्मलेशाभावादकलुपज्ञानो निर्मलज्ञान इति । न कषायी-अकपायी ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धनवियुक्तत्वात् । मुक्तःकर्मरहितोऽपुनरावृत्ति प्राप्तः । सर्वलोके पूज्यत्वेऽपि, निश्शेषान्तरायक्षयेऽपि निरवद्यभिक्षामात्रोपजीवित्वाद्भिक्षुः । पुनश्च स ज्ञातृपुत्रीयो महावीरो भगवान् दीप्तिमान् , शक्र इव देवाधिपतिरिव कान्तिमानिति, "शक इन्द्रः सुनासीरः शतक्रतुरिति धनञ्जयः"1"जिप्णुर्लेखर्षभः शक्र इत्यमरः" ॥ ८॥ अन्वयार्थ-[से] वे भगवान् महावीर [पन्नया ] वुद्धिकी अपेक्षा अनन्तपारवाले तथा [अणाइले] पवित्र जलसे भरपूर [महोदहीवावि] खयम्भूरमण समुद्रकी तरह [अक्खयसायरे ] अक्षीण समुद्र थे तथा [अकसाइ] चार कषायसे रहित [ मुक्के ] आठ कर्मोंसे रहित [देवाहिवइ ] असंख्य देवोंके अधिपति [ सक्केव ] इन्द्रकी तरह [ जुईम ] दीप्तिमान् चमकीले थे ॥ ८॥ भावार्थ-भगवानको किसी अन्य पदार्थसे उपमा न दी जा सकनेके कारण समुद्रसे हि एक देशीय उपमा दी गई है। अर्थात् जिसप्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र अनन्तपार युक्त है उसी प्रकार भगवान् भी द्रव्य क्षेत्र-काल और भावकी अपेक्षा अनन्त ज्ञानवान् थे, समुद्रके निर्मल जलके समान उनका ज्ञान भी स्पष्ट और आवरण रहित था, इसी प्रकार कषायसे रहित तथा आठ कोंक बंधसे मुक्त थे, जैसे इन्द्रका प्रभाव देवोंपर होताहै उसी प्रकार प्रभुका प्रभाव भी प्राणीमात्र पर. था ॥८॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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