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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ६१ संसारस्थ-ससारमा रहीने पर्याय वदलता रहेवाने कारणे संसारी छे, जो के शुद्ध निश्चय दृष्टिए जीव संसार रहित छे, तेमज नित्य आनंदघनरूप खभावनो धारक छे, तो पण अशुद्ध निश्चय नये द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव ए पांच प्रकारे ससारमा रहे छे, तेथी आत्मा-जीव संसारस्थ पण छे। सिद्ध-आठ प्रकारना कर्मरूप ईंधणने शुक्लध्याननी आग वढे जेणे याळी दीधा होय, ते सिद्ध छ, अथवा गत्यर्थक “षिध्" धातु थी सिद्ध अर्थात् अपुनरावृत्तिनी अपेक्षा जे निवृत्ति पुरीमा पहोंची गया छे, वे सिद्ध छे, अथवा निष्पत्यर्थक "षिधु" धातु थी सिद्ध एटले जेणे पोताना अर्थ निष्पन्न का छे, अने जे कृतकृत्य थई गया छे, ते सिद्ध छे, अथवा शास्त्रार्थक तेमज मांगल्यार्थक "षिधुन्' धातुथी सिद्ध अर्थात् जे शासन कर्ता छ, अथवा जे मंगलत्वना खरूपना अनुभव कर्ता छ, अथवा जे स्वयं मंगलरूप छे, ते सिद्ध छे, अथवा नित्य होवाना कारणे जेनी स्थिति अविनाशी छे, अथवा भव्य जीवोमा जे गुणसमूह उपलब्ध होवाना कारणे प्रसिद्धि पामेला छे, अथवा जेणे पूर्वे वांघेला जुनां कर्मो वाळी नाख्या छ, जे निवृत्ति महेलना शिखर पर विराजे छ, जे प्रसिद्ध छे, शासन कर्ता छे, कृतार्थ छे, ते सिद्ध प्रभु उदासीन रूपेण आपणा मंगलना करनार छ, नमस्कार करवा योग्य छे, एटला माटे के तेओ अविनाशी ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति आदि थी युक्त छे, अने खविषय आनन्दोत्कर्ष उत्पादक होवाथी भव्य जीवो पर अप्रतिम उपकार करवाने लीधे नमन करवा योग्य छे, जो के जीव व्यवहार नये पोताना आत्मानी प्राप्तिरूप उपरोक सिद्धत्व गुणवालो छ, ने तेना प्रतिपक्षी कर्मोना उदये असिद्ध छे, तो पण निश्चय नये अनन्तज्ञान अने अनन्तगुण स्वभावनो धारक होवाथी ते सिद्ध छ। ऊर्ध्वगामी-उपरोक्त गुणो धारण करनार जीव खभावधी उर्ध्वगमन करवा वाळो छे, अने व्यवहारे चतुर्गतिमा रखडावनार कर्मोना उदयथी ऊंची, नीची तथा तिरछी दिशामा गमन करवावाळो छे, तो पण निश्चय नये केवलज्ञानादि अनन्त गुणोनी प्राप्ति स्वरूप मोक्षमा जवाना कारणे खभावथी ऊर्ध्वगमन करवावाळो छ, आ रीते शुद्ध अने अशुद्ध नये जीवनुं स्वरूप समजावेलुं छे, अनादिकालथी कर्मबंधथी बंधाएलो आत्मा ससारमा रखडीज रयो छे, इत्यादि आगमथी प्रसिद्ध छे, शुद्ध नये जीवनुं स्वरूप उपादेय अर्थात् ग्रहण करवा योग्य __ छे, अने वाकी वीजु वधुं हेय छे, तेना त्रस अने स्थावर एवा वे भेद छ ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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