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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३७ कहलाता है। भगवान् महावीर चरमतीर्थकर नाम और गुण से महावीर ही थे। उनमें ये सब उपमाएँ पाई जाती थीं। ज्ञान-उनका ज्ञान कैसा था? क्योंकी प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेमें समर्थ है, अत. ज्ञानही सबसे ।दृढ और पुष्ट प्रमाणयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त ज्ञान ही वस्तुतत्व का निर्णय करताहै, इसीसे परमोपकारी ज्ञानही है, यथा जिसमे तीन कालके गोचर अनन्त गुण पर्याय से संयुक्त पदार्थ अतिशयके साथ प्रतिभासित होते हैं। उसको ज्ञानी जनों ने जान कहा है । यह सामान्यरूप से पूर्ण-ज्ञानका स्वरूप है। आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है, उसके मध्यमें असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश है, उसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये अनन्त द्रव्य है, उनके तीन काल सम्बन्धी भिन्न भिन्न अनन्त-अनन्त पर्याय हैं। उन सवको युगपत् (एक समयम) जाननेवाला पूर्णज्ञान आत्माका निश्चयखभाव है। यद्यपि कर्मके निमित्तसे उसके पाच मेद होगए हैं तथापि वह स्वभावस्थित है। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वभाववाले पदार्थों से यह जगत् अतिशय भरा पडा है, जिसके ज्ञान में यह एक दम प्रतिविम्बित हो वह ज्ञान परमयोगीश्वरों के लिए तो नेत्र के समान है । क्योंकि अन्य मतों में योगीप्रत्यक्ष ज्ञान को माना है, वह यथार्थ न हो कर उक्त ज्ञानही सत्यार्थ है। इसके अतिरिक्त यहमी कहा है कि जिसके द्वारा समस्त तत्वों को विचार सरणी से आत्मा स्फुट रूपमें देखता है, जिस तत्वमें अनन्त पाय गुण की सत्ता है, इसे सम्यक्तया जाननेके लिए ज्ञान ही हितकर और पहला साधन है। इसी ज्ञानसे आत्माको जड ससार से अलग कर डालता है। आत्मकल्याण करनेवालोंकेलिए ज्ञानका सर्व प्रथम आराधन इसलिए __ अभीष्ट है कि इसके द्वारा जीव पौद्गलिक तथा शारीरिक सुखसे विरक्त हो जाता है। अपने आत्मीय गुण रत्नकी रक्षा इसीकी छन छायामें होती है। फिर उससे प्रवृत्ति-पाप द्वारको रोक कर आत्म शोधनमें लगजाता है। __ज्ञानकी पूर्ण मात्राके प्रभावसे क्रोधको शान्त करता है, इससे आत्मामें __अपूर्व सम भावकी झाकी होती है। शान्तिके कारण सब प्राणिओंमें अमेद
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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