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________________ - वीरस्तुतिः । तच्छीलं चरित्रं यमनियमरूपं "शुचौ तु चरिते शीलमित्यमरः" । अस्तित् खात्मभावेऽपि, यदाह मेदनी कोषे,-"शीलं स्वभावे सद्वत्ते योगान्तरे सिते" इति । "शीलं खभावे सद्वत्त" इत्यमरोऽपि । तत्कीदृक् । ज्ञाताः क्षत्रियास्तेषां पुत्रो ज्ञातपुत्रः। “राजन्यः क्षत्रियो ज्ञात इति कोषः” । “णायपुत्ते विसोगे" "गच्छति णायपुत्ते असणाए" "इत्याचारागसूत्रे नवमाध्याये" । ज्ञातपुत्रो भगवान महावीरप्रभुरिति । तस्यासीदिति । यदेतन्मया पृष्टं तच्च हे भिक्षो ! "भिक्षुः परिवाद कर्मन्दीत्यमरः" । सुधर्मस्वामिन् ! याथातथ्येन सम्यक्प्रकारेण जानास्यवगच्छसि । तत्कृत्वं त्वया यथा श्रुतं कर्णगोचरी [ यथा भवति तथा] कृतं, यथा निशान्तं नितरामतिशयेन शान्तं ब्रूह्याचक्ष्वेति भावः। निशान्तमित्यवधारितं यथा दृष्टं तथेति केचित् ।" . अन्वयार्थ-(से) उस (णायसुयस्स) ज्ञातृपुत्र-महावीर भगवान्का (णाणं) ज्ञान (कह) कैसा था, (दंसणं) दर्शन (कह), कैसा था, और (सीलं) चरित्र (कह) कैसा था, [भिक्खु !] हे सुधर्मखामिन् ! आप [जहातहेणं] अच्छे प्रकार [जाणासि ] जानते हो अत एव [अहासुर्य ] आपने जैसा सुना है एवं [जहाणिसंतं] जैसा निर्धारण किया है उसी प्रकार [हि ] फर्माइए। भावार्थ-आर्य जम्बू नामक जिज्ञासु-शिष्यने निवेदन किया कि हे सुधर्मस्वामिन् ! गुरुवर्य ! आप सव कुछ अच्छीतरह जानते हैं अत एव कृपा करिए और यह फर्माइए कि-भगवान् ज्ञातृपुत्र महावीरका ज्ञान कैसा था ? उन्होंने उस सम्यग्ज्ञानको किस प्रकार प्राप्त किया? और उनका दर्शन सामान्य प्रतिभास तथा यम-नियम और सयमादि शील-चरित्र किसभान्तिके थे ? ॥२॥ भाषाटीका-मोक्ष लक्ष्मीके प्रदाता, सर्वपदार्थोके ज्ञाता, जिसकी वाणी विलक्षण और अमोघ है, जो अष्टम पृथ्वी [ मोक्ष को प्राप्त कर चुकाहै, वीर रंस पूर्ण है, वीरता पूर्वक जिसने कामराज, मृत्युराज और मोहराजको जीत लिया है, जिसका अविरल ज्ञानमें विशेष गमन अर्थात् प्रवेश है, वह वीर
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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