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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३३ ब्राह्मण परम्परा जन्मकालमा ते शूद्र होय छे, गुण वृद्धि पामीने द्विज बने छे, शास्त्राभ्यास करवाथी विप्र थाय छे, अने अध्यात्मयोग तेमज ब्रह्मज्ञान प्राप्त करीने ते ब्राह्मण थाय छ । अब्राह्मण-जे क्रोध-मान-प्राणी हिंसा-करे छे, असत्य वोले छे, चोरी करे छे, परिग्रह राखे छे, तृष्णा युक्त छे, ते ब्राह्मण जाति अने विद्याथी हीन तथा पतित छ । अने ते पापक्षेत्र कहेवाय छ । ब्राह्मणोचित श्रेष्ट यश-पांच इन्द्रियोनु नियमन करनारा, जीवितव्यनी पण परवा नहि करनारा, कायोत्सर्ग द्वारा आत्मचिन्तवन करनारा; मन, वाणी, तथा कायना पाप विकारोथी दूर रहेनारा, अने कायनी आसक्तिथी रहित, एवा महापुरुषो वहारंनी शुद्धिनी दरकार न करता उत्तम अने महाविजयी भावयज्ञने ज आदरे छ। " ब्राह्मणोचित तीर्थस्नान-धर्मरूपी कुंड छे, ब्रह्मचर्यरूपी पुण्यतीर्थ छे, आत्मानी प्रसनलेश्यारूप पवित्र जळ छे, तेमां स्नान करवाथी मरहित अने जन्ममरणथी मुक्त थाय छे, हमेशने माटे अपुनरावृत्तिरूप पवित्रता आवी जाय छे, दोषोनो सर्वथा अभाव त्यारेज थाय छ। । एबुं स्नान आत्म कुशल पुरुषोए कयुं छे, अने ऋषिओए.तेज महालानने वखाण्युं छे, जेमा नानकरेला पवित्र महर्पिओ निर्मल थईने [कर्मरहित थईने] उत्तमस्थान (मुक्ति) ने पाम्या छ । उपरोक्त लक्षणवाला ब्राह्मणोनी पेठे गृहस्थो, क्षत्रियो; अने परधर्मिओ पण मने पूछे छे के एकांत हितकारी अने अनन्य धर्म यथास्थित कोणे कयो छे ? ते धर्म दुर्गतिमा पडता जीवोने धरी राखे छे, बधार्नु एकान्त कल्याण करे छे, ते अपार महिमामय छे ॥१॥ किंहं चं णाणं कहं दंसणं से, । सीलं कहं णायसुयस्स आसी । , जाणासि णं भिक्खु । जहातहेणं, अहासुयं हि जहा णिसंतं.२॥ वीर. ३
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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