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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २९ एरीते अल्पज्ञ प्राय हुंपण मानवोचित उत्सुकताथी भरपूर वनीने 'वीरस्तुति' नामे श्रीसूत्र कृताङ्गना षष्ठम अध्यायनी व्याख्यारूपे ज्ञातृपुत्र श्रीमहावीर प्रभुनी स्तुति करूं छु मने आशा छ के तेमा मारी प्रसन भक्तिरूप सफलता जरूर थशे । मणिमा दोरो परोववा करतां तेने वींधq वधु कठण छ, तेमनी स्तुतिरूप कृति तो प्रथमथी ज छे पण हुँ तो तेमनी स्तुतिरूप मणिमां मारी वीनअनुभवी तूटीफूटी वालभाषारुपी दोरो परोववानो सतत प्रयत्न करीश, अने ते मारी अत्यल्प भक्तिना कारणे अधिक मुश्केल नथी । पण ते वधी प्रभुनी कृपाज छ । तेमा मारी कशी विशेषता नथी । कारण के तेओश्रीए २५०० वर्ष पहेला भव्यात्माओ माटे आत्मज्ञाननो मार्ग सरल करी दीधेलो छ तेमा विशेषता उत्पन्न करवानी मारी अल्पज्ञनी कशी शक्ति नथी । आ सर्व प्रक्रिया तेमनीज वतावेली छ । वीरप्रभुना गुणगान करतीवखते प्रारंभमां गुरुशिष्य संवाद जिज्ञासु जंबुखामी मुमुक्षु तेमज मुख्य अन्तेवासी शिष्य हता, तेओ वस्तुनो निर्णय करवामा सदा तत्पर रहेता हता। तेओ तत्वने प्राप्त करीने असीम श्रद्धा तेमज प्रतीति साथ मनन करवावाळा महापुरुषोमाना एक हता, तेओ भगवान् सुधर्माऽऽचार्यनी सेवामा सदा तत्पर रहेता हता। आचार्यनी ओळख ते वखते सुधर्मा एक विशेष आचार्य तेमज समजदार जैनसमाजना साचा नेता हता तेओ चतुरसमाजने सगठित तथा सच्चरित्रवान् बनाववानो पूर्ण प्रभावशाळी उपदेश आप्या करता हता। तेओ पोते पण विनयशील अने आचारयुक्तहता, कारण के जे पोते विशुद्ध तेमज गुणी होय छे तेज बीजाओ माटे चारित्राकाक्षीनी अध्यात्म मनोरथमाला गुंथी शके छे, तेथी आचार्यपणामाटे पूर्ण अधिकारी छ । कथु पण छे के “जे सूत्र तेमज अर्थना जाणकार छ, आत्माना ज्ञानलक्षणने निर्मल वनावीने जेमणे प्रकाशित करेल छे, चारे प्रकारना सघने जेओ पृथ्वीनी पेठे आधारभूत छ। संघनी अशान्तिनो नाश करे छ, आत्मतत्व- उपदेष्टा छे, ते आचार्य होई शके"। - तेओ पाच प्रकारना आचारोनुं पोते पालन करे छे, तेमनी देखादेखीथी संघ पण सदाचारनुं अनुकरण करे,छे, आ रीते आचारनो यथातथ्य उपदेश आचार्य द्वाराज मळी शके छे । कारणके तेओ अध्यात्मज्ञानना प्रकाशक छ ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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