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________________ २८ वीरस्तुतिः। जिनेन्द्र कथित धर्मतत्वनो आश्रय लइने आठकमरूपी जालने तोडवानो तेणे अवश्य प्रयत्न करवो जोइए। कर्मनाशनो उपाय जेवी रीते अग्निथी सुवर्णनो मेल नाश पामे छे तेवीज रोते त्याग, वैराग्य, सयम, नियम, तपरूपी अग्निथी कर्मोनो नाश थई जाय छ । साधकर्नु ए कर्तव्य छे के उपरोक साधनोने समजवाने माटे देणे सर्वज्ञ प्रभुनी वाणीरूप उपदेश साभळवो जोइए अने आप्त [सर्वज्ञ] कोने कहेवाय ते समजबुं जोइए। आप्त अढार दोष रहित छे, चार घनघाती कर्मनो क्षय करी अनन्त चतुष्टय [ अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त शक्ति ] ने वरेला छ साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका ए चार तीर्थना स्थापक होवाथी तीर्थकर कहेवाय छ । धर्मनी आदि करवाधी तेमज अनन्त विभूतिमय होवाथी तेमो असंख्य देव तेमज इन्द्रोधी सेवा योग्य छ । तेथी अर्हत्-पण कहेवाय छ। वर्तमान अवसर्पिणी कालना चोथा आरामां आ भारतवर्षमा २४ तीर्थकर, एटले माप्त पुरुषो थई गएला छ । जेमाना अन्तिम तीर्थंकर ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभु छ । वीरप्रभुनी स्तुति ज्ञातृपुत्र महावीर प्रभुनो आपणापर अत्यन्त उपकार छ । तेमना उपकारोने भूली जवामां कृतन्नता छे, तेथी जोके तेमनुं निर्वाण थया २४६५ वर्ष थई गया छतां मना गुणोनुं स्मरण करवू तथा तेमनी स्तुति करवी, ए आपणुं परम कर्तव्य छे, तेथी आजे हु तेमनी स्तुतिरूप व्याख्या करवा प्रयत्नशील वन्यो छु। तेमनी अनेक स्तुति अने मारुं असामर्थ्य___ तत्वज्ञोमा मुख्य विद्वानोए अनेक गुणोनुं अनेक उत्तम शब्दोमा वर्णन करेलु छे, परन्तु हुं पण पोताना सम्यग्दर्शनना वलथी काइक स्तुति करूं, एवी उच्च अने पवित्र अमिलापा प्रगट थई । जो के मारामा ते विद्वानो जेवी प्रतिभा नथी, छतां मारा उत्साह अने भक्ति मने वळात्कारे प्रेरणा करी रहेल छ, कारण के जे रस्ते गरुड पोतानी प्रचंड गतिथी उडीने पसार यई गयेल होय छे, ते रस्ते तेनी पाछल एक नाना पक्षीने जवानी इच्छा शुं नथी थती ? जरूर थाय छ । ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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