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________________ ३६२ वीरस्तुतिः। दिशा बदल देनी चाहिये । अर्थात्, जो त्राटक वहिदृष्टिका किया जाता था उसके, स्थानपर अन्तर्दृष्टिका त्राटक करना चाहिये। प्रथम श्वासोच्छ्वासमें दृष्टि रखनी चाहिये। और जो, श्वास वाहर आता है , तव 'सो' और अन्दर जाते समय 'हं' का कुदरती ही उच्चार होता है। तव दोनों मिलकर "सोऽहं" अजपाजाप विना ही जसे होता रहता है उसपर ध्यान देना चाहिये। अर्थात् श्वास जहासे उठता है और जहां जाकर समा जाता है वहा तक उसके अन्दर वृत्ति रखनी चाहिये। इस प्रयाससे एकदम शान्ति होने लगेगी, और अन्तरके आनन्दमें उत्तरोत्तर वृद्धि होगी। दिनरातमें सामान्य रीतिसे २१६०० श्वासोच्छ्वास चलते हैं। उनमेंसे उपयोंग विनाका एक श्वास भी न जाने देना चाहिये । “सोऽहं" के जापका सतत प्रयास होनेके पश्चात् सहजवृत्ति श्वासमें रहने लगती है । आत्मामे इस प्रकार श्वासका ध्यान सिद्ध होनेपर साधकको हृदयके मध्य भागकी वृत्ति स्थिर करनेका प्रयास करना चाहिये। । जव हृदयकी वृत्ति स्थिर होगी तव हृदयमेंसे अलौकिकशान्तिका स्रोत प्रकट हो जायगा । जिस शान्तिका साधकको अव तक इससे पहले किसी के पास अनुभव नहीं हुआ था। जव हृदयका ध्यान सिद्ध होता है तव नामीके एक देशमें वृत्तिको स्थापन करे । वहांकी सिद्धि होनेपर उसे पुनः हृदयमें ले आना चाहिये, और वहासे कंठके मध्यमें ला छोडे । नाभि, हृदय और कंठमें शान्तिका अनुभव होनेपर मनोवृत्तिको त्रिकुटी भवनमें स्थापन करे । त्रिकुटी ध्यानका प्रयास होनेपर और वहाकी स्थिरवृत्ति होनेपर मसूरकी दाल जितने एक विन्दुका साक्षात्कार होता है, और वह बिन्दु अतिशय चमकदार होता है। विन्दुके दर्शन होनेपर साधकको अपार आनन्द मिलता है । उस नादबिन्दुके दर्शन होनेपर सिद्धियां भी साधककी सेवामें उपस्थित हो जाती हैं। कपालमें अखिल विश्वकी झांकी हो जाती है। इसका कारण यह है कि उस स्थलपर त्रिकुटीमें गोल विन्दुके दर्शन ही हैं, और वह चांदकी निशानी द्वारा विन्दु दर्शनके रूपमें समझाया गया है। विन्दु दर्शन होनेपर साधकको अलौकिक ज्ञानकी प्राप्ति होती है, और जन्म जरा मृत्युके विनाशकी तैयारी हो जाती है। विन्दु दर्शन ही शंकरका (आत्मानंदका) तीसरा नेत्र है । प्रत्येक आत्मा शंकर ही है, और उसके समानतया दो नेत्र तो हैं ही, और तीसरा विन्दु दर्शन रूप ज्ञानलोचन प्रयास द्वारा उघडता है, बिन्दु दर्शनके पश्चात् योगीको
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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