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________________ वीरस्तुतिः । आ गाथानो भावार्थ मने बराबर समजायो नथी, माटे गुरुगमधी धारवो, तो पण यथामति लख्यो छे, छद्मस्थावस्थामां आत्मानुं क्षायोपशमिक वीर्य होय छे, अने तेनी साथे तेवीज लेश्या मळे छे, एटले जोडायेलां वीर्ये कर्म - ग्रहण करे छे, आ कर्म ग्रहण करवानी दशाने अभिसंधिज कहे छे, अने मति उपर्युक्त वीर्यने ग्रहण करे छे । २५६ देहकम्पनरूप सूक्ष्म क्रिया भने शरीर संकोचवा रूप तेमज तेनो प्रसार करवारूप प्रसारणनी क्रियाने स्थूल क्रिया कहे छे, एटले ते मन-वचन अने कायना योगने पामे छे । ॥ २ ॥ जेनी सख्या न आवे ते असख्य कहेवाय. आत्माना अथवा बीजा द्रव्योना सूक्ष्ममा सूक्ष्म आकाशना विभागमां रहेलो जे भाग ते प्रदेश कहेवाय छे। आत्माना आवा असंख्य प्रदेशो छे, अने ते एके एक प्रदेशमां असख्य वीर्य छे, तेथीज आत्मा मन-वचन-अने कायना असख्य योगनी काक्षा–अभिलाषा थाय छे, अर्थात् ते योगो साध्य - प्रगट करवाने समर्थ छे, अने ते हेतुथी पुद्गलनी जुदी जुदी वर्गणाओने विविध प्रकारनी लेश्याओथी शक्तिमुजब वुद्धिलेखी रहे छे, अर्थात् एक पछी एक ग्रहण करीने मापती रहे छे ॥ ३ ॥ आत्मा योगनी शक्तिने अनुसारे कर्मपुद्गल ग्रहण करे छे । पण जो आत्मामां उत्कृष्ट वीर्य प्रगट थयुं होय तो पछी मन-वचन-कायना योग लग भग बंध थाय छे, अने कर्मवांधवा रूप क्रिया थी आत्मामा कर्मबंध तो नथी । योगनी ध्रुवतानो लेश बधा आत्मामा होय छे, अने ते लेशमात्रथी पण आत्माना आठ रुचक प्रदेश कर्म वंधथी विरक्त रहे छे, ए दृष्टान्त छे माटे जेम जेम आत्मामा उत्कृष्ट वीर्य प्रगट याय, तेम तेम कर्मबंध कमती थाय, अने छेवटे सम्पूर्ण वीर्यपणुं प्रगट थता वीर भगवान्नी पेठे समस्त कर्मबन्धनो नाश थाय, अने शुद्ध चैतन्यपणुं प्रगट थाय तेवुं छे । माटे हे भगवान् ! मने वीरपं आपो ! ॥ ४ ॥ ' जेम कामी पुरुषमां वीर्यनो वधारो थता तेने प्रबल कामेच्छा थाय छे, तेथी पुरुष स्त्रीनी अने स्त्री पुरुषनी इच्छा करे छे । अथवा काम एटले इच्छा, ते द्रव्यादिकनी इच्छावालो जेम द्रव्यनी इच्छा करे छे, अने परभावने वाछे
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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