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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २५५ शब्दार्थ- पूर्ण वीर्योल्लाससे शूरवीर बन कर ] आलंबन असमर्थ दशामें लियाहुमा आश्रय, (तथा) साधन-समस्त साधन-उपकारण, (उनको) जो-जो महात्मा, त्यागे छोड देते हैं, पर परिणति-आत्मासे अन्य-पुद्गलादिका खभाव ( उससे ), भागेरे दूर होजाता है, (वह) अक्षय=जिसका क्षय न हो, ऐसे शाश्वत, दर्शनज्ञान वैरागे-ज्ञान-दर्शन और चरित्रके द्वारा, आनन्दघन आनन्दसे भरपूर, प्रभु परम समर्थ-परमात्मा-ईश्वर, (होकर ) जागेरे (सदैव ) ज्ञानसे जागृत रहता है। भावार्थ-सम्पूर्ण वीर्योल्लाससे शुर वीर होकर जो पुरुष असमर्थ दशामें पहले लिए हुए आलंवनों को और समस्त (अत्यावश्यक) उपकरणोंको भी छोड देताहै, उस आत्मासे पर जो पुद्गलादिका विभाव है वह दूर होजाता है, पुनः वह महात्मा पुरुष जिसका कमी क्षय न होने पावे, ऐसे शाश्वत ज्ञान-दर्शन और चरित्रसे, आनन्दपदसे भरपूर परमात्मारूप होकर सदैव ज्ञानपूर्वक जागता रहता है, अथवा 'आनन्दघन' कवि कहते हैं, कि-प्रभुआत्मा जाग जाता है, यानी अनादिकी ऊघौसे आत्मा जागृत हो जाता है अर्थात् विभावदशाको त्याग कर खयं परमानन्दरूपमें मम हो जाता है। परमार्थ-आत्मा अनादिकालके पुद्गल सम्बन्धी आधारसे अपना कार्यकरना त्यागदेता है, तव आत्माका अखंड-शुद्ध-चैतन्यत्व सम्यगू ज्ञानदर्शन और चरित्रद्वारा प्राप्त करता है। और अनादि-कालसे आत्मा जिस पुद्गलके संगमें पडा ऊंघ रहा है, उसीसमय जग कर खयं अपने खरूपको प्राप्त करता है अथवा 'मानन्दघन' कवि कहते हैं कि यह आत्मा पर वस्तुका सग छोडदे और अपना निनी अवलम्ब रक्खे, तथा परानुयायीपन छोडदे तो उस रत्नत्रय के आराधनसे यह आत्मा तुरन्त मोक्षको प्राप्त होता है, ॥ ७ ॥ गुजराती भावार्थ-चोवीसमां जिनेश्वर श्री महावीर खामीना चरणोमा हुं वन्दन करु छ अने कर्मरूपी शत्रुमोने हणवामा जे योद्धापणु, अथवा जेवू श्रीवीर भगवान्नु वीरपणुं छे, तेवू वीरपणुं हुँ मागु छु, वळी जे प्रभुनो मोहनीय कर्मरूपी अन्धकार-भय नष्ट थयो छे, अने कर्मरूप शत्रुओनो पराजय करवाथी जेमनो जयपटह वाग्यो छे, एवा श्रीवीरभगवान्ने पगे लागीने हुँ वीरपणुं मागुं छु, ॥१॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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