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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २४६ खामी दर्शन समो निमित लही निर्मलो, जो उपादान ए शुचि न थाले । दोषको वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, खामी सेवा सही निकट लाशे॥४॥ . भावार्थ-वामी श्रीवीतराग हैं, जो अन्यके कार्यके भकर्ता हैं, परभावादिके अभोका हैं, इच्छा लीला चपलता कौतुहल आदिसे सर्वथा रहित हैं, क्योंकि इच्छा तो जनतावान् अर्थात् न्यूनतावालेमें होती है, और परमेश्वरतो पूर्ण आनन्दी सहजानन्दी है, इसीलिए स्वामी इच्छा रहित हैं, और लीला मी सुखकी लालसावालेको ही होती है, और लालचीपना सुखकी ऊनतासे होता है, इसीकारण प्रभुमें लालचीपना भी नहीं है । ऐसे निजानन्दविहारी खामीके दर्शनके समान निर्मल निमित्तको प्राप्त करके, आत्माका उपा. दान-मूलपरिणति यदि शुद्ध न होगी तो जानना चाहिए कि यातो वस्तुका दोष (जीव अवगुणावृत) है, या शायद जीवका दल ही अयोग्य है, कहना न होगा कि इस जीवकी सत्ता किस ढंगकी है ? अथवा क्या अपने उद्यममे कुछ कमी है ? क्योंकि कठोर प्रयत्न और सतत उद्यम करनेपर तो आत्माका सुधार अवश्य होना ही चाहिए था मगर अवतक कुछ न हुआ । इससे स्पष्टसिद्ध है कि-यह जीव अपनी जनताके कारण अपने ओत्मीय गुणोंका स्मरण नहीं करता, इसलिए अब क्या करना चाहिए? और कोई उपाय भी तो नहीं सूझता। यही समझ कर श्रीअर्हन् भगवान् महावीर प्रभुकी सेवाको ही मैंने आत्म स्मरणके लिए अमोघ शस्त्र ( साधन) समझा है। प्रभुसेवा ही प्रभुकी समीपताको दिलायगी । क्योंकि वहिरात्मभाव तो इस अवस्थामें अत्यन्त दुष्ट है। परन्तु जिनराजकी सेवनासे यह दुष्टता छूटायगी ॥ ४ ॥ खामी गुण ओळ्खी खामीने जे भजे, : दर्शन शुद्धता तेह पामे। . ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीपी वसे मुक्ति धामे ॥५॥ . .'
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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