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________________ २४४ . वीरस्तुतिः । अतः मुझे तार, तार! हे नाथ! दीनबन्धो! निष्कारण दयालो ! मुझे तार भव दुःखसे वचा, वचा ॥२॥ आदयों आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र-अभ्यास पण कोई कीघो।' शुद्ध श्रद्धान वळी आत्म-अवलम्ब विन, तेहवो कार्य तेणे को न सीघो॥३॥ . भावार्थ-शायद कभी कोई यह कहे कि-आवश्यक करणादि आचरण बहुतवार स्वीकार किया है, मगर उस चरित्रको तो लोकोपचारसे ही किया था जिससे फिर वह आत्मामें विष तथा गरलके समान परिणत हुआ, क्योंकि अन्यान्य अनुष्ठानसे क्या हो सकता है, यदि भावधर्म नहीं हो तो उसके विना सब कुछ वृथा है, और उसे उपचार गतानुगतिकतासे अगीकृत किया समझा जाता है। इसके उपरान्त कोई यह भी कहेगा कि-उच्चगोत्र-यशोनामकर्म आदिके विपाकसे ज्ञानावरणीयके क्षयोपशमके योगसे शास्त्रोंका पूर्ण अभ्यास भी तो किया है, शास्त्रोंका पठन-पाठन किया है, शास्त्रके गर्भमसे यथार्थ अर्थको निकाल कर जगत्में उसका दिव्य प्रसार किया है। तथा अध्यात्म-भावनासे स्पर्शज्ञानानुभावके विना उस श्रुतका अभ्यास किया गया परन्तु शुद्ध और यथार्थ स्याद्वादउपेतभावधर्मके विना शेप भावधर्मकी रुचिसे दान-दयादिक जो पुरुषार्थ किया गया है उन सवको कारण समझना चाहिए परन्तु मूल धर्म नहीं । धर्म तो वस्तुकी सत्ता है, और वह आत्माके अन्तर्गत-खरूपतासे पारिणामिकताकी दशाम स्थित है। उसमे से जो धर्म प्रकट होता है, वह शुद्ध-श्रद्धान, शुद्धप्रतीति, तथा पुनः मात्माके स्वरूपको प्रकट करानेवाली रुचि तथा आत्माके स्वगुण सम्बन्धी अवलम्बनके विना जो आचरण किया जाता है तथा जानाभ्याससे यदि वह कार्य किया जाता है, जिस कार्यसे आत्माका सम्यक् साधन होता है, उसे किसीने निर्मित नहीं किया प्रगट नहीं किया। जिसके कारण जो आत्मगुण प्रकट हो सकता था वह नहीं हुआ। अतः हे परमेश्वर ! इस अधमाधम दासको तेरी ही कृपा पार कर सकती है इसलिए तार, तार, दास समझकर तार, अपना दास समझकर तार ॥ ३॥ .
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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