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________________ २३२ . वीरस्तुतिः। '. *"अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः, अन्तश्च विनाशो जराद्युपलक्षणभूतो येषां ते 'अरथान्ताः' ... . . (भगवतीसूत्र) भावार्थ-जिनका आत्मारूपी 'रथ' अप्रतिहत शक्तिवाला होनेसे कहीं रुक नहीं सकता, अर्थात् तीनलोक और अलोकको भी जानता है, अत: उसकी 'अरथान्त' संज्ञा इसी कारण सार्थक मानी गई है। .. (४) "अरहन्त" शब्दका यह अर्थभी निकलता है कि-"गग-द्धपक कारणभूत-त्रिलोकवर्ती अनन्त पदार्थोके ज्ञाता-दृष्टा होनेपर भी जो किसी पदार्थमे, आसक्ति नहीं रखता, वीतराग खभावशील है, इससे 'अरहन्त' कहलाते हैं। जैसे___"क्वचिदप्यासक्तिमगच्छत्सु वीतरागत्वात् प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसम्पर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्व-खभावमत्यजन्तोऽर्हन्तः।" (भगवतीसूत्रम्) इसके अतिरिक्त "अरिहंत" पाठ भी प्रचलित है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि अरि-कर्मशत्रुका नाश करनेसे अरिहत कहे जाते हैं, जैसे कहा है कि- "अरिहननादरिहन्तृ (तः) नरकतिर्यमानुषप्रेतावासगताशेपदुःखप्राप्तिनिमित्तत्वादरिर्मोहस्तस्यारेहननादरिहन्तः ।" (धवलसिद्धान्त) • "मोहरज-अंतराय-हणण गुणादो य णाम अरिहंतो" (मूलाचार) , भावार्थ-"( कर्मरूप) शत्रुका हनन करनेसे 'अरिहंत' कहलाते हैं, क्योंकि-नरक-तिर्यंच-मनुष्य और देव इन चारों गतिओंकी समस्त दु.खप्राप्तिका निमित्त यह कर्मशत्रु ही है, जिसमें भी मोहशत्रुसबसे बलवान् है अतः उसको हनन करनेसे 'अरिहंत' नाम सार्थक है।"
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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