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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २३१. जो वन्दना और नमस्कारके योग्य हैं, पूजा और सत्कारके योग्य हैं, सिद्धि (मोक्ष) गमनके योग्य हैं, अत एव वे 'अरहंत' कहे जाते हैं। (२) रहस्' का अर्थ एकान्त होता है, यानी समस्त पदार्थोको निकटवी-दूरवती-सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थोके अनन्त समूहको प्रत्यक्षमें हथेलीपर रक्खे हुए आमलेकी तरह जो स्पष्ट जानते और देखते हैं । अर्थात् जिसे गुप्त या प्रगट एकान्त कुछ भी अप्रगट नहीं है। इसलिए 'अरहोऽन्तर' नाम, यथार्थ है । जैसे कहा मी है कि___"न' विद्यते रह एकान्तो गोप्यमस्य, सकलसन्निहितव्यवहितस्थूलसूक्ष्मपदार्थसार्थसाक्षात्कारित्वादित्यरहोऽन्तरः ।" (स्थानाङ्गसूत्रम्) भावार्थ-जिसके लिए एकान्त-गोपनीय पदार्थ कुछ भी न हो, ससा. रभरके छोटे वडे सव पदार्थोका जो साक्षात्कार करनेवाला हो वह 'अरहोऽन्तर' कहलाता है। "अथवा 'अविद्यमानं' रह एकान्तरूपो देशोऽन्तश्च मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां तेऽरहोन्तरः" (भगवतीसूत्र) भावार्थ-जिसे सर्वज्ञताके कारण सर्ववस्तु समूह गत सर्व प्रकारके पदार्थोका एक बहुत वडा समूहगत प्रच्छन्नताका अभाव हो, इस प्रकारका रह. (एकान्तरूप प्रदेश) नहीं है, अर्थात् उनके अनन्तज्ञानके सन्मुख कोई ऐसा प्रदेश और वस्तु समूह नहीं है, जिसके वे ज्ञाता और दृष्टा न हों, वे तो अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शनके द्वारा ससारके पूर्ण रहस्य को जानते हैं, इसीसे पहाडोंकी गुफा आदिका अन्तर (मध्यभाग) तकका सम्यक् ज्ञान अपने सर्वज्ञत्व द्वारा जान लेते हैं, बारीकसे वारीक तथा एकान्त और मध्यप्रदेशके जाननेवाले हैं, अतः 'अरहोऽन्तर' नाम सार्थक ही है। (३) 'अरथान्त' ऐसी संस्कृतच्छायाके अनुसार यह अर्थ निकलता है कि-जिसके पास समस्त परिग्रहका अभाव है, और वुढापा आदि उपलक्षगवाला अन्त-विनाश नहीं है वह 'अरथान्त' है और वे वीतराग सर्वज्ञ देव होते हैं। जैसे
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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