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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता २२७ आवा अनेक शास्त्रोना प्रमाण सांभळीने रात्रिभोजननो त्याग करवो जोइए । प्रभुए पण रात्रिभोजननो त्याग कर्यो हतो। तपश्चरण नम्रता अने विनय साचवता हता, तेमा नम्रता तो अपार हती, तेमनी वाणी अनन्त नय युक्त, तेमज शुद्ध हती, ते वाणी थी संसार अने मोक्षनुं खरूप समजाव्यु हतु, वधा मास्रवोधी पण रहित हता, बीजाओने पण आस्रव अने पापथी रोकता, केमके जे पोते अधर्मी अने अनीति वाळो होय तो ते बीजाओने धर्म अने नीतिमां केम स्थापन करी शके, अने जो पोते धार्मिक अने नैतिक जीवन व्यतीत करनार होय तेज वीजाने पापथी के आस्रवरूप खाडाथी बहार काढी शके छे, कारण के कोइए कहुं पण छे के जे खयं तो न्यायनी वात करतो होय अने न्यायथी विरुद्ध आचरण करतो होय तो ते बीजामो ऊपर पोतानी काई पण छाप पाही शकतो नथी, जे पोते अ-दान्त होय ते क्यारे इन्द्रिय निग्रह करी शके ? परन्तु प्रभुतो पोते दान्त हता, उपधानवान् हता, तप वढे शरीर शुद्ध तुं, प्रभु आ लोक तेमज परलोकनु ज्ञान मेळवी पापमय प्रवृत्तिथी सदावे माटे दूर रखा हता। सोचाय धम्म अरिहंतभासियं, समाहियं अठ्ठपदोविसुद्धं । तं सद्दहाणाय जिणा अणाऊ, इंदा व देवाहिवा आगमिस्संति; त्ति बेमि॥२९॥ संस्कृतच्छायाश्रुत्वा च धर्ममहद्भापितं, समाहितमर्थपदोपशुद्धम् । तंश्रद्दधानाजनाअनायुष, इन्द्रावा देवाधिपा आगमिष्यन्ति ॥२९॥ (इति ब्रवीमि)
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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