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________________ २१८ , वीरस्तुतिः। , " मिलती है, जिसका स्वभाव धर्मात्मा और सच्चरित्रानुगामी होता है, ये सब सुख दिनमें यत्नपूर्वक भोजन करनेवाले सत्यवादीको मिलते हैं।" ' इत्यादि अनेक शास्त्र संमत होनेसे रात्रिभोजनको अप्राकृतिक और दूषित समझकर छोड देना चाहिए। प्रभु महावीर रात्रिभोजनके स्वयं त्यागी थे, और औरोंको भी त्याग करनेका उपदेश करते थे, तथा सदैव तपश्चरण किया करते थे, अपार नम्रता थी, उनकी वाणी अनन्तनयोंसे शुद्ध थी। उन्होंने संसार और मोक्षका स्वरूप बताया था, सब प्रकारके आस्रवोंसे आप रहित थे, औरोंको भी आस्रवके पापजालसे सदा रोकते थे, क्योंकि जो स्वयं अधर्मी और अनीतिमान् हो वह औरोंको धर्म और नीतिमें क्योंकर स्थापन कर सकता है। जो स्वयं धर्मिजन-नैतिक जीवन व्यतीत करनेवाला हो वही औरोंको पापकर्मके गढेसे निकाल सकता है । किसीने कहा भी है कि "जो खयं तो न्याय की वात कहता हो, परन्तु न्यायके विरुद्ध आचरण करता हो तो वह औरोंपर अपना कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता, क्योंकि 'अदान्त' कभी इन्द्रिय निग्रह नहीं कर सकता।" और प्रभुने इस लोक और परलोक को जानकर पापोंसे सर्वथा निवृत्ति प्राप्त की थी ॥ २८ ॥ र गुजराती अनुवाद-भगवान् महावीर प्रभु स्त्रीसंसर्ग अने स्त्रीनी नजीक रहेवाना पण कट्टर त्यागी हता, तेमणे नववाड विशुद्ध ब्रह्मचर्यनु पालन करवानुं कर्तुं छे, ने स्थान पर स्त्री वेठी होय त्या ब्रह्मचारी एक कलाक सुधिमा नज बेसे, कारण के तेना अशुद्ध परमाणुओ सुशील पुरुपने हानिकर छ । एज ब्रह्मचारिणी माटे समजी लेबु । रात्रिभोजन त्यागी ते उपरान्त तेओ रात्रिभोजनना पण प्रत्यक्ष विरोधी हता, कारण के रात्रिभोजनथी प्रस जीवोनी हिंसा थाय छे, तेथी रात्रिमा भोजन करवानी मना करवामा ,आवी छे, हिंमा त्यागी रात्रिभोजन न ज करे, जे जीव तीव्र राग भाव-सहित होय छे, ते तेनो त्याग करी शकतो नथी, कारणके जे जीवने भोजन पर अधिक प्रीति होय छ, ते रात्र के दिवशे खातो पीतो ज रहेशे, ज्या राग वन्धन होय छे त्या प्रमत्तभाव जरूर रहे छे, अने प्रमत्तभावयुक्त प्राणी हिंसा अवश्य करे छे.
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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