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________________ १९४ वीरस्तुतिः । । । ....गुजराती अनुवाद--कषायनो पहेलो मेद, क्रोध छे, आवेशमा आवी जीव द्वेष करे छे, तेथी बीजार्नु अनिष्ट पण करी बेसे थे, चित्तवृत्ति गरम तथा खराव वनी जाय छे । अनिष्ट करती वखते क्रोधनोज उपयोग थाय छे, कषायनो बीजो मेद मान छ । तेनी मात्रानुं करुं प्रमाण नथी, तेने अहंकार पण कहे छे, तेना आवेशमा मात्र पोतानीज चढती इच्छे छे । माया नाम कपटनुं छे, तेनाथी दम्भ करे छे, सरळतानो नाश थाय छे, चित्तवृत्ति-कब्जे रहेती नथी। परधनमा अतिशय अभिलाषा ए लोभ छे, तेनाथी अन्यर्नु अहित करी बेसता वार लागती नथी। .. कषाय निग्रहनो उपाय-क्रोध शान्तिथी जीति शकाय छे, शान्ति वगर क्रोधना आवेगमा अन्ध बने छ । अधीरता-अस्थिरता-तेमज हृदयशून्यताआवे छे तेथी क्रोधनो सममावथी नाश करवो जोइए। माराथी मोडें कोई नथी, ए मान्यता मानथी आवे छे, अथवा पोतानामा न होय तेवा गुणो पोतानामा छे, एवी बुद्धि थई जाय छे, तेथी वधाने हलका माने छे, स्पष्ट वात न कहेवी ते माया छे, । ___ पुष्कळ धन होवा छता हरेक क्षणे वधुनी अमिलाषा राखवी ते लोभ छे, अथवा परधन जोइने ते लई लेवानी हृदयमा इच्छा उत्पन्न थवी ते 'पण लोम छे, लोभ मनुष्यनो मोटामा मोटो शत्रु छे, सर्वना विरोधD ए कारण छ । लोभथी प्रेरित वनीने माता-पिता-भाई-बन्धु-अने धर्मनी मर्यादा पण रहेती नथी । गुरुमित्र-पुत्र-भगिनी वगेरेनो नाश लोभथी करे छे । लोभथी सर्व प्रकारना अकृत्य करे छ। परन्तु भगवाने आ चारे कयायोनो नाश करी दीघो छ, आ चारे दोषो कोई साधारण दोष नथी, ते तो अध्यात्म दोप छ । तेनाथी अध्यात्मिकतानो नाश थाय छे, तेनाथीज अनन्त ससारमा रखडवू पढे छे, भगवान महावीर प्रभु ते कषायोनो नाश करी महर्षि वन्या, हवे तेओ पाप-आस्रव करता नथी, कर्म मळथी तेओ अलिप्त छे, जन्म-जरा-मरणथी मुक्त छे, कलहनो अत्यन्ताभाव घई गयो छे, प्रभु निर्वैर छे, आशय ए छे के प्रभु पोते पाप करना नथी, कोई बीजाने पाप या आस्रवनो उपदेश पण करता नथी, करावता नथी, कारणके पाप करवू, करावयु, ते कषाय अने अशुभयोगो थी-थाय छे, प्रभुमा तेनो अत्यन्त अभाव
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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